पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४८४

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मोर ।।१।। श्रीचन्द्रावली जिन श्री गिरिधरदास कवि, रचे ग्रन्थ चालीस । नाटिका ता सुत श्री हरिचन्द को, को न नवावै सीस ।४ स्थान रंगशाला । जग जिन तृन सम करि तज्यो, अपने प्रेम प्रभाव । (ब्राह्मण आशीर्वाद पाठ करता हुआ आया ।) करि गुलाब सो आचमन, लीजत वाको नांव ।५ भरति नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर । चन्द टले सूरज टलें, टलैं जगत के नेम । जयति अलौकिक धन कोऊ, लखि नाचत मन यह दृढ़ श्री हरिचन्द को टलै न अविचल प्रम । पा.- वाह वाह ! मैं ऐसा नहीं जानता था, तब (और भी) तो इस प्रयोग में देर करनी ही भूल है। नेति नेति तत शब्द प्रतिपाद्य सर्व भगवान । (नेपथ्य में) चन्द्रावली चकोर श्रीकृष्ण करौ कल्यान ।२ श्रवन सुखद भव भय हरन त्यागिन को अत्याग । (सूत्रधार आता है) नष्ट जीव बिनु कौन हरि गुन सों करै विराग ।। सू.- बस बस बहुत बढ़ाने का कुछ काम हम सौंह तजि जात नहिं, परम पुन्य फल जौन । नहीं ? मारिष मारिष दौडो दौड़ो आज ऐसा अच्छा कृष्ण कथा सौं मधुर तर, जग मैं भाखौं कौन ।।८।। अवसर फिर न मिलेगा हम लोग अपना गुण दिखा कर सू.- (सुन कर आनन्द से) आहा ! यह देखो आज निश्चय कृतकृत्य होंगे। मेरा प्यारा छोटा भाई शुकदेव जी बनकर रंगशाला में (पारिपार्श्वक आकर) आता है और हम लोग बातों ही से नहीं सुलझे । तो पा.-कहो कहो, आज क्यों ऐसे प्रसन्न हो रहे अब मारिष! चलो. हम लोग भी अपना अपना वेष हो ? कौन सा नाटक करने का विचार है और उसमें धारण करें। ऐसा कौन सा रस है कि फूले नहीं समाते ? पा.-क्षण भर ठहरो मुझे शुकदेव जी के इस वेष सू.-आ : तुमने अब तक न जाना ? आज मेरा को शोभा देख लेने दो तब चलूँगा । विचार है कि इस समय के बने एक नये नाटक की सू. -जब कहा, अहा कैसा सुन्दर बना है, वाह लीला करूँ क्योकि संस्कृत नाटकों को अपनी भाषा में | मेरे भाई वाह । क्यों न हो आखिर तो मुझ रंगरंज का अनुवाद करके तो हम लोग अनेक बार खेल चुके हैं भाई है ।। फिर भी बारम्बार उन्हीं के खेलने को जी नहीं चाहता । अति कोमल सब अंग रंग सांवरो सलोना । पा.- तुमने बात तो बहुत अच्छी सोची, वाह बूंघर वाले बालन पै बलि वारौं टोना ।। क्यों नहो, पर यह तो कहो कि वह नाटक बनाया मुज विशाल मुख चन्द झलमले नैन लजोहैं । जुग कमान सी खिंची गड़त हिय में दोउ भौंहै ।। सू.- हम लोगों को परम मित्र हरिश्चन्द्र ने । छवि लखत नैन छिन नहिं टरत पा.- (मुंह फेर) किसी समय तुम्हारी बुद्धि में शोभा नहिं कहि जात है। भी भ्रम हो जाता है भला वह नाटक बनाना क्या जाने । मनु प्रेमपुंज ही रूप धरि आवत आजुलखात है।।९।। वह तो केवल आरम्भशूर है और अनेक बड़े-बड़े कवि ।। दोनों जाते हैं ।। हैं, कोई उनका प्रबन्ध खेलते ? ।। इति प्रस्तावना ।। सू.- (हंसकर) इसमें तुम्हारा दोष नहीं, तुमतो उस से नित्य नहीं मिलते, जो लोग उसके संग में रहते है वे तो उसको जानतें ही नहीं तुम विचारे क्या हो ! पा.- (आश्चर्य से) हां मैं तो जानता ही न था, (अथ विष्कम्भक भला कहो उनके दो चार गुण मैं भी सुन सकता हूँ। (आनन्द में झूमते हुए डगमगी चाल से शुकदेव जी आते सू.- क्यों नहीं, पर जो श्रद्धा से सुनो तो । पा.-मैं प्रति रोम को कर्ण बना कर महाराज शु.- (श्रवन सुखद इत्यादि फिर से पढ़कर) पुथु हो रहा हूँ, आप कहिए । अहा संसार के जीवों की कैसी विलक्षण रुचि है. कोई, सु.-(आतन्द से) सुनो नेम धर्म में चूर है, कोई ज्ञान के ध्यान में मस्त, कोई परम प्रमे निधि रसिक बर, अति आदर गुन खान । मत मतान्तर के झगड़े में मतवाला हो रहा है, एक जग जन रंजन आशु कवि, को हरिचंद समान ३ दूसरे को दोष देता है, अपने को अच्छा समझता है. भारतेन्दु समग्र ४४० किसने है ?