पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४७८

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राजा-(घबड़ाकर) फिर क्या हुआ? खचनमद गजन करन; जग रचन जे आहि । विद -फिर उस की रानी के सुन्दर गले में मदन लुकञ्चन सरिस दूग, कह अंजन तिन माहिं ।। घोड़ी देर तक हम मूला मूलते रहे, पर जब राजा ने धन कुल की मरजाद कछु, प्रेमपंथ नहि होत उस का आलिंगन किया तो कठोर स्तन के धक्कों से राय रंक सत्र एक से, लगत प्रनय रस सोत । पिस कर हम ऐसे चिल्लाये कि नींद खुल गई। घनिक वधू जो छवि लाहत ; बेदी रतन जराय । राजा-(हंसता है) ग्रामनघूटी हूँ सुई. कुकुम तिलक लगाय । समझा, यह तुम हमारा परिहास करते हो। "अगिवारे तीचे गनि, किती न तरुनि जहान । विदू.- परिहास नहीं, ठीक कहते हैं। राज्य वह चितवनि कछु और ही, निहिं बस होत सुझान" ।। से छुटा हुआ राजा. कुटुम्ब में फंसी बालरण्डा, भूखा विद.- यह ठीक है, पर लड़कई में जो रूप गरीब ब्राहमण, और विरह से पागल प्रेमी लोग मन के रहता है जवानी के सौन्दर्य से उस से कोई सम्बन्ध ही लड्डू से भूख बुझा लेते हैं । भला मित्र, हम यह नहीं । यह क्यो । पूछते हैं कि यह सब किसका प्रभाव है। राजा- हमारे जान में जन्म लेनेवाला विधि राजा-प्रेम का। | दूसरा है । और उन्नत कुच उत्पन्न करने वाला दूसरा विदू.- भला रानी से इतना स्नेह होते मी है । सुन्दरता से भरा अग, कर्णावलम्बी नेत्र, हारशोभी कर्पूरमंजरी पर इतना प्रेम क्यों करते हो और फिर सन, क्षीण मध्य देश और गोल नितम्ब यही पांच अग रानी रूप आदिक में किस से कमती है? कामदेव के मुख्य सहायता होते हैं। राजा- यह मत कहो । किस २ मनुष्य से ऐसी निपथ्य में) प्रेम की गांठ बंध जाती है कि उस में रूप कारण नहीं द्याय! इस उपडे घर में भी कपूरमंजरी पसीने से तर होता । ऐसे प्रेम में रूप और गुण तो केवल चवाइयों के हुई जाती है इस से इसे पंखा झले। मुंह बंद करने के काम आता है। सखी कुरंगिक ! यह हिम उपचार तो मुझ कमल बिद. दु.- तो प्रेम नाम आप के मत से किस का ? की लता को और भी मुरझा देगा। राजा नव यौवन वाले स्त्री पुरुषों के परस्पर कमलनान विषवाल सम, हार भार अहि मोग । अनेक मनोरथों से उत्पन्न सहज चित्त के विकार को मलय प्रलय जल अनज्ञ मोहि, वायु आयु हर रोग ।। प्रेम कहते हैं। वित. - प्यारे मित्र ने सुना ! तो अब इस अमृत विद.- में गुण क्या है। के प्याले की उपेक्षा कब तक करोगे, चलो पूप से राजा-- परस्पर सहज स्नेह अनुराग के उमगों सूतती कमलिनी, बिना पानी की केसर की क्यारी, का बढ़ना, अनेक रसों का अनुभव, संयोग का विशेष बालक के हाथ में रोली की पुतली, इरने के सींग में सुख, संगीत साहित्य और सुख की सामग्री मात्र को | फसी हुई चन्दर की डाल, और अनाड़ी के हाथ पड़ी सुहाना कर देना और मर्ग का पृथ्वी पर अनुभव | मोती की सी कर्पूरमंजरी की दशा है. इस से चला कर करना। शीघ्र ही उस को प्राणदान दो, लो न तुम्हारा सपना तो विदू.-और वह जाना कैसे जाता है। | सच्च हुआ, चलो काम की पताका उड़ायो, मदनमत्र के राजा-लगावट की दृष्टि, नेत्रों का चञ्चल हुकार के साथ ही स्वेद का अभिषेक भी होय, चलो इसी और चोर होना, अंग अंग के अनेक भाव और मुख की | खिड़की से चलें । (खिड़की की ओर चलना नाट्य आकृति से। करते है। (भीतरी परदा उठता है और एक घर में विदू.- हमारी जान में चित्त में जो बिहार के कुरगिा और कर्पूरमंजरी बैठी दिखाई देती है)। उत्साह होते है उसी का नाम प्रेम है । और उस को कर्पूर.- (राजा को देखकर घबड़ा के) अहा ! स्प नहीं है तो भी मनुष्य में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है । क्या पूर्णिमा का नन्द आकाश से उतर आया या भगवान जहाँ कामदेव का इन्द्रवाल यह प्रेम स्थिर है वहा शिव जी ने रति की अधीनता पर प्रसन्न होकर फिर आभूषण जोर द्रव्य से क्या? से कामदेव | जिला दिया, या वही छलिया आता है राजा-(हंस कर) इस को द्रष्य और आभूषण जिसने चित्त चुरा कर ऐसा धोखा दिया । सखी ! यह ही की पड़ी रहती है। अरे! कुछ इन्द्रजाल तो नहीं है? कहा अभूषन कह वसन, का अनेक सिंगार विदू.- (राजा को दिखा कर) हा, सचमुच यह 'तिय तन सो कछु और ही ; जो मोहत संसार ।। इन्द्रजाल का तमाशा है। EM मारतेन्दु समग्र ४३७