पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४७७

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विदू. फुल्यौ तजि सब सोक निज, प्रगटि कुसुम कल थोक ।। विदु.- मित्र, स्त्रीजितों की भांति तुम क्यों विदू.-मित्र, महारानी ने यह दोहद आपही व्यर्थ बकते हो? क्यौं न किया, आप इस का कारण कुछ कह सकते राजा मित्र, स्वप्न में हम ने ऐसा ही मनुष्य रत्न देखा है। राजा- -तुम्ही जानो। विदू. कैसा? विदू. .-मैं कहूं, पर जो आप रूठ न जायं? राजा-मैं ने देखा है कि वह कमलबदनी हंसती राजा-भला इसमें रूठने की कौन बात है, हुई मेरी सेज के पास आकर नीलकमल धुमाकर मुझे निस्सन्देह जो जी में आने कह डाले। मारने चाहती है और जब मैंने उस का अंचल पकड़ा है विदू.- तो वह चंचल नेत्रों को नचाकर अंचल छुड़ाकर भाग जदपि उतै रूपादि गुन, सुन्दर मुख तन केस । गई और मेरी नींद भी खुल गई। पै इत जोबन नृपति की. महिमा मिली विसेस ।। विद.- (आप ही आप) तो कुछ हम भी कहैं । राजा- (प्रगट) मित्र, मैने भी एक सपना देखा है ! जदपि इतै जोबन नवल, मधुर लरकई चारु । राजा-(आशा से) हां मित्र कहो कहो । पै उत चतुराई अधिक, प्रगटन रस ब्यौहारु ।। विदू. .- हम ने देखा है कि देवगंग के सोते में - सच है जबानी और चतुराई में बड़ा सोते सोते हम महादेव जी के सिर पर खेलने वाली नदी बीच है। में जा पहुंचे हैं और फिर शरद ऋतु के मेघों ने हम को (नेपथ्य में बैतालिक गाते हैं) पेट भर के पीया है और तब हम हवा के घोड़े पर (राग चैती गौरी) आकाशा की सैर करते फिरते हैं। मन भावनि भई सांझ सुहाई । दीपक प्रकट कमल राजा-(आश्चर्य से) हां, फिर ? सकुचाने प्रफुलि कुमुदिनि निसि ढिग आई ।। ससि विद्व.- फिर उसी मेघ में गुब्बारे की भांति बैठे प्रकाश पसरित तारागण उगन लगे नभ में अकुलाई । बैठे ताम्रपर्णी नदी में पहुंचे हैं और जब सूर्य्य चित्रा साजत सेष सबै जुवती जन पीतम हित हिय हेत नक्षत्र में गये तब समुद्र के ऊपर जाके वह मेघ बड़ी बढ़ाई । फूले रैन फूल बागन में सीतल पौन चली | बड़ी बूंद से बरसने लगा और एक सीप ने मुंह खोल कर सुखदाई । गौरी राग सरस सुर सब मिलि गावत हमें भली भांति पीया है और उस के पेट में जाते ही हम कामिनि काम बधाई ।। छ माशे के मोती हो गये । राजा-मित्र, देखो सन्ध्या हुई। राजा-(आश्चर्य से) फिर? विदू.-तभी न बन्दियों ने सांझ के गीत गाए । विदू.-फिर हम समुद्र की लहरों से टक्कर कर्पूर.- सखी अंधेरा होने लगा, अब चलो । लड़े और सैकड़ों सीपों में घूमते फिरे । अन्त में घिस विच.- हां, चलना चाहिए । घिसा कर सुन्दर गोल मटोल चमकीले मोती बन गए (जवनिका गिरती है) और हम को पूर्व जन्म का स्मरण ज्यों का त्यों बना इति द्वितीय अंक रहा राजा- (आश्चर्य से) फिर का हुआ ? विद्. -फिर समुद्र से वह सीप निकाल कर तीसरा अंक फाड़ी गई, तब हम एक दाने से चौंसठ होकर बाहर निकले और लाख अशरफी पर एक सेठ के हाथ बिके स्थान राजभवन और जब उस ने उन मोतियों को बिधवाया तो हम को (राजा और विदूषक आते हैं) बड़ी पीड़ा हुई। राजा-(स्मरण करके । उसकी मधुर छबि के राजा (आश्चर्य से) हां तब? आगे नया चन्द्रमा, चम्पे की कली,हलदी की गांठ, विदू. .-फिर उस सेठ ने दस दस छोटे मोतियों तपाया सोना और केसर के फूल कुछ नहीं है। पन्ने के के बीच हमें पिरोकर एक माला बनाई । तब हमारा हार और मालती की माला से शोभित उस का कण्ठ जी | दाम करोड़ों अशरफी से भी बढ़ गया और सोने के डिब्बे से नहीं भूलता और उस के कर्णावलम्बी नेत्र मेरे जी में | में रख के सागरदत्त सेठ ने पंजाब देश से कर्णउझ नगर। अब तक खटकते हैं। के राजा श्री बज्रायुध के हाथ हमें बेच डाला । कर्पूर मंजरी ४३३