पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४७४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विच.- वेस ।। पहिराय। सुहाय ।। प्रसन्न किया। बनाय ।। राजा-कैसे? राजा-- मनहु सान फेर्यो मदन, जुगल बान विच.-- गोरे तन कुमकुम सुरंग, प्रथम न्हवाई निज लाय ।। बाल । चोटी गुधी पाटी सरस, करिकै बांधे राजा-सोतो जनु कंचन तप्यो, होत पीत सों केस । लाल ।। राजा मनहु सिंगार इकत्र हवै, बंध्यो यार के विच. इन्द्रनीलमणि पैजनी, ताहि दई विच.- बहुरि उद्यई ओढ़नी, अतर सुबास राजा-कमल कली जुग घेरि के, अलि मनु बैठे बसाय । आय ।। राजा-फूल लता लपटी किरिन, रवि ससि की विब.-सजी हरित सारी सरिस, जुगल जघ मनुआय ।। कह घेरि। विच.-- एहि विधि सो भूषित करी, भूषण राजा-सो मनु कदली पात निज, खंभन यसन बनाय । लपट्यौ फेरि ।। राजा-काम बाग झालरि लई, मनु बसत ऋतु विच.- पहिराई मनि किंकिनी, छीन सुकटि | पाय ।। तटलाय ।

-महाराज ! मैं सच कहता हूँ।

राजा-सो सिंगार मंडप बंधी, बंदनमाल दृग काजर लहि हृदय वह, मनिमय हारन पाय । कंचन किकिनि सो सुभग, ता जुग जंघ सुहाय ।। विच.--गोरे कर कारी चुरी, चुनि पहिराई राजा--(उस की बात का अनादर करके) हाथ। छि: । दृग पग पोछन को किए भूषन पायंदाज । राजा--सों सांपिन लपटी मनहु, चंदन साखा विद.- (क्रोध से) वाह ! हम तो गहिने का साथ ।। वर्णन करते हैं और आप उसकी निन्दा करते हैं। विच.- निज कर सो बांधन लगी, चोली तब अबि सुन्दर हूं कामिनी, बिनु भूषन न सुहाय । फूल बिना चम्पक लता, केहि भावत मन भाय ।। राजा-सो मनु खींचत तीर मट, तरकस ते राजा-(हंसकर) मूढ़ । बिनु भूषन सोहही, चतुर नारि करि भाव । - ताल कंचुकी में उगे, जोबन जुगल चहि अत नहिं अंगूर को, मिनी मधुर मिलाव ।। विच.-महाराज ठीक है, जो नेत्र कान को छूए राजा-सो मानिक संपुट बने, मन चोरी हित लेते हैं उनमें अंजन क्या, और जो मुख चन्द्रमा की गात ।।। निन्दा करता है उस को तिलक क्या, वैसे ही यद्यपि विच. बड़े बड़े मुक्तान सों, गल अति सोभा रूप के समुद्र से शरीर में काई से गहिनों की कौन देत। आवश्यकता पर यह केवल लोक की चाल है. फूली राजा-तारागन आए मनौ, निज पति ससि के हुई पीत चमेली को किसने गहिने से सजा है 1 हेत ।। राजा-कपिजल सुनो, गहिना और कपड़ा तो विच.- करनफूल जुग करन में, अतिहि करत नाचने वालियों का भूषण है, रूप वही है जो सहज ही प्रकास । चित्त चुरावै, सुभाव ही स्त्री की शोभा है, और गुण ही राजा मनु ससि ले दै कुमुदिनी, बैठयौ उतरि उसका भूषण है, रसिक लोग कभी ऊपर की बनावट अकास ।। नहीं देखते। बाला के जुग कान में, बाला सोभा बिच.-महाराज! मैं रानी की आज्ञा से केवल देत । उस की सेवा ही नहीं करती, कर्पूरमंजरी को मेरे प्रेम से राजा-सक्त अमृत ससि दुहुँ तरफ, पियत मुझ पर विश्वास भी है इसी से मैं भी उसे बहुत चाहती मकर करि हेत। हूँ और आप से सच निवेदन करती हूँ कि वह विच.-जिय रंजन खजन द्गनि, अंजन दियो निस्सन्देह विरह से बहुत ही दुखी है। क्योंकि भारतेन्दु समग्र ४३० वह लाल । तेहि काल ।। विच. लखात । विच..