पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४४६

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'चल बसे! हाय ! हा शैव्याबलम्ब ! हा वत्सरोहिताश्व! हा मातृ पितृ ह.- अरे इन बातों से तो मुझे बड़ी शंका होती | विपत्ति सहचर ! तुम हम लोगों को इस दशा में है (शब को भली भांति देखकर) अरे इस लड़के में | छोड़कर कहां गए! आज हम सच मुच चांडाल हुए । तो सब लक्षण चक्रवर्ती के से दिखाई पड़ते हैं । हाय ! लोग कहेंगे कि इस ने न जाने कौन दुष्कर्म किया था कि | न जाने किस बड़े कुल का दीपक आज इस ने बुझाया | पुत्रशोक देखा । हाय हम संसार को क्या मुंह है, और न जाने किस नगर को आज इसने अनाथ किया | दिखावेंगे । (रोता है) वा संसार में इस बात के प्रगट है। हाय ! रोहिताश्व भी इतना बड़ा भया होगा (बड़े होने के पहले ही हम भी प्राण त्याग करें । हा निर्लज्ज सोच से) हाय हाय ! मेरे मुहं से क्या अमंगल निकल प्राण तुम अब भी क्यों नहीं निकलते । हा बज्र हृदय गया । नारायण (सोचता है। इतने पर भी तू क्यों नहीं फटता । नेत्रों अब और क्या शै.- भगवान विश्वामित्र ! आज तुम्हारे सब देखना बाकी है कि तुम अब तक खुले हो । या इस व्यर्थ मनोरथ पूरे भए । हाय ! प्रलाप का फल ही क्या है, समय बीता जाता है, इसके ह.- (घबड़ाकर) हाय हाय यह क्या ? (भली | पूर्व कि किसी से साम्हना हो प्राण त्याग करना ही भात देखकर रोता हुआ) हाय अब तक मैं संदेह ही में उत्तम बात है (पेड़ के पास जाकर फांसी देने के पड़ा हूं? अरे मेरी आंखें कहां गई थीं जिन ने अब तक योग्य डाल खोजकर उसमें दुपट्टा बांधता है) पुत्र रोहिताश्व को न पहिचाना, और कान कहाँ गये थे | धर्म ! मैंने अपने जान सब अच्छा ही किया परंतु जिन ने अब तक महारानी की बोली न सुनी ! हा पुत्र ! न जाने किस कारण मेरा सब आचरण तुम्हारे हा लाल ! हा सूर्यवंश के अंकुर ! हा हरिश्चन्द्र की विरुद्ध पड़ा सो मुझे क्षमा करना । (दुपट्टे की बिपत्ति के एक मात्र अवललम्ब! हाय ! तुम ऐसे फांसी गले में लगाना चाहता है कि एक साथ चौक कठिन समय में दुखिया मां को छोड़कर कहां गए । अरे कर) गोविन्द गोविन्द्र! यह मैने क्या अनर्थ अधर्म तुम्हारे कोमल अंगों को क्या हो गया ! तुम ने क्या विचारा । भला मुझ दास को अपनी शरीर पर खेला, क्या खाया, क्या सुख भोगा कि अभी से चल क्या अधिकार था कि मैं ने प्राण त्याग करना चाहा । बसे । पुत्र स्वर्ग ऐसा ही प्यारा था तो मुझ से कहते, मैं भगवान सूर्य इसी क्षण के हेतु अनुशासन करते थे। अपने बाहुबल से तुम को इसी शरीर से स्वर्ग पहुंच | नारायण नारायण ! इस इच्छाकृत मानसिक पाप से देता । अथवा अब इस अभिमान से क्या ? भगवान | कैसे उद्धार होगा ! हे सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर क्षमा इसी अभिमान का फल यह सब दे रहा है । हाय पुत्र ! | करना, दुख से मनुष्य की बुद्धि ठिकाने नहीं रहती : अब (रोता है) तो मैं चांडालकुल का दास हूँ. न अब शैव्या मेरी स्त्री है आह ! मुझसे बढ़कर और कौन मन्दभाग्य होगा ! | और न रोहिताश्व मेरा पुत्र । चलू अपने स्वामी के काम राज्य गया, धन, जन, कुटुम्ब सब छूटा, उस पर भी पर सावधान हो जाऊ, वा देखू अब दुक्खिनी शैव्या क्या यह दारुण पुत्रशोक उपस्थित हुआ । भला अब मैं रानी करती है (शैव्या के पीछे जाकर खड़ा होता है) । को क्या मुंह दिखाऊ । निस्संदेह मुझसे अधिक शै.- (पहली तरह बहुत रोकर) हाय ! अब मैं अभाग और कौन होगा । न जाने हमारे किस जन्म के क्या करू । अब मैं किसका मुंह देखकर संसार में पाप उदय हुए हैं जो कुछ हमने आज तक किया वह जीऊगी । हाय मैं आज से निपूती मई ! पुत्रवती स्त्री यदि पुण्य होता तो हमें यह दुख न देखना पड़ता । अपने बालकों पर अब मेरी छाया न पड़ने देंगी। हा हमारा धर्म का अभिमान सब झूठा था, क्योंकि | नित्य सबेरे उठकर अब मैं किसकी चिन्ता करूंगी। कलियुग नहीं है कि अच्छा करते बुरा फल मिले, खाने के समय मेरी गोद में बैठकर और मुझ से मांग निस्संदेह मैं महा अभागा और बड़ा पापी हूं । (रंगभूमि मांग कर अब कौन खायगा ! मैं परोसी थाली सूनी की पृथ्वी हिलती है और नेपथ्य में शब्द होता है) क्या देखकर कैसे प्रान रक्खूगी। (रोती है) हाय खेलता प्रलयकाल आ गया ? नहीं । यह बड़ा भारी असगुन | खेलता आकर मेरे गले से कौन लपट जायगा, और मा हुआ है । इसका फल कुछ अच्छा नहीं, वा अब बुरा मा कहकर तनक तनक बातों पर कौन हठ करेगा । होना ही क्या बाकी रह गया है जो होगा । हा । न जाने हाय मैं अब किसको अपने आचल से मुंह की धूल किस अपराध से दैव इतना रूठा है (रोता है) हा | पोंछकर गले लगाऊंगी और किसके अभिमान से सूर्यकुल आलवालप्रवाल । हा हरिश्चन्द्र हृदयानन्दन !| बिपत में भी फूली फूली फिरूगी । (रोती है) या जब भारतेन्दु समग्र ४०२