पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४४३

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दीजिए। ह.-आप जानते ही हैं कि मैं पराया दास हूँ ध.- महाराज का कल्याण हो । आप की कृपा इससे जिनमें मेरा धर्म न जाय वह मैं करने को तैयार से महानिधान सिद्ध हुआ । आपको बधाई है अब लीजिए इस रसेन्द्र को । ध.- (आप ही आप) राजन जिस दिन तुम्हारा याही के परभाव सों अमरदेव सम होइ । धर्म जाएगा उस दिन पृथ्वी किसके बल से ठहरेगी जोगी जन बिहरहिं सदा मेरु शिखर भए खोइ ।। (प्रत्यक्ष) महाराज इसमें धर्म न जायगा क्योंकि स्वामी ह.- (प्रणाम करके) महाराज दास धर्म के यह की आज्ञा तो आप उल्लंघन करते ही नहीं । सिद्धि का विरुद्ध है । इस समय स्वामी से कहे बिना मेरा कुछ भी आकर इसी स्मशान के निकट ही है और मैं अब लेना स्वामी को धोखा देना है। पुरश्चरण करने जाता हूँ, आप बिध्नों का निषेध कर ध.- (आश्चर्य से आप ही आप) वाह रे महानुभावता ! (प्रगट) तो इसके स्वर्ण बना कर आप (जाता है) अपना दास्य छुड़ा लें। ह.- (ललकार कर) हटो रे हटो बिध्ना चारों ह.- यह ठीक है पर मैंने तो बिनती किया न कि ओर से तुम्हारा प्रचार हम ने रोक दिया । जब मैं दूसरे का दास हो चुका तो इस अवस्था में मुझे (नेपथ्य में) महाराजाधिराज जो आज्ञा । जो कुछ मिले सब स्वामी का है । क्योंकि मैं तो देह के आप से सत्य वीर की आज्ञा कौन लांघ सकता है। साथ ही अपना सत्व मात्र बेच चुका इससे आप मेरे खुल्यौ द्वार कल्यान को सिद्ध जोग तप आज । बदले कृपा करके मेरे स्वामी ही को यह रसेन्द्र दीजिए । निधि सिधि विद्या सब करहिं अपने मन को काज ।। ध.- (आश्चर्य से आप ही आप) धन्य है.- (हर्ष से) बड़े आनन्द की बात है कि विध्नों हरिश्चन्द्र ! धन्य तुम्हारा धैर्य ! धन्य तुम्हारा विवेक ! ने हमारा कहना मान लिया । (बिमान पर बैठी हुई | और धन्य तुम्हारी महानुभावता ! या तीनों महाविद्या आती है) चलै मेरु बरु प्रलय जल पवन झकोरन पाय । म.-वि. महाराज हरिशचन्द्र ! बधाई है । हमी पै बीरन के मन कबहूँ चलहिं नाहिं ललचाय ।। लोगों को सिद्ध करने को विश्वामित्र ने बड़ा परिश्रम तो हमें भी इसमें कौन हठ है । (प्रत्यक्ष) बैताल ! जाओ किया था तब देवताओं ने माया से आपको स्वप्न में जो महाराज की आज्ञा है वह करो। हमारा रोना सुनकर हमारा प्राण बचाया । बै. -जो रावल जी की आज्ञा । (जाता है) (आप ही आप) अरे यही सृष्टि की उत्पन्न, ध.- महाराज ब्राह्म मुहूर्त निकट आया अब पालन और नाश करनेवाली महाविद्या हैं जिन्हे हम को भी आज्ञा हो । विश्वामित्र भी न सिद्ध कर सके । (प्रगट हाथ जोड़कर) ह.-जोगिराज! हम को भूल न जाइएगा. कभी त्रिलोकविजयिनी महाविद्याओं को नमस्कार है। कभी स्मरण कीजिएगा। म.- वि. महाराज हम लोग आप के बस में हैं 1 ध. महाराज ! बड़े बड़े देवता आप का स्मरण हमारा ग्रहण कीजिए। करते हैं और करेंगे मैं क्या हूँ। ह.-देवियो! यदि हम पर प्रसन्न हो तो (जाता है) विश्वामित्र मुनि को वशवत्तिनी हो क्योंकि उन्होंने आप ह.- क्या रात बीत गई ! आज तो कोई भी लोगों के वास्ते बड़ा परिश्रम किया है। मुरदा नया नहीं आया । रात के साथ ही स्मशान भी म.- वि. (परस्पर आश्चर्य से देखकर) धन्य शांत हो चला । भगवान नित्य ही ऐसा करें। महाराज धन्य! जो आज्ञा । (नेपथ्य में घंटानूपुरादि का शब्द सुनकर) अरे यह (जाती हैं) बड़ा कोलाह कैसा हुआ ? धर्म एक बैताल के सिर पर पिटारा रखवाए हुए (बिमान पर अष्ट महासिद्धि नव निधि और बारहो आता है। प्रयोग आदि देवता' आते हैं)। १. ब्रह्मा, विष्णु, महेश के वेश में पर स्त्री का श्रृंगार । २. महानिधान बुभुक्षित धातु भेदी पारा जिसे बावन तोला पाव रत्ती कहते हैं । ३. साधारण देवी देवताओं के वेश में । अष्ठ महासिद्धि यथा -- अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईश्वत्व और वशित्व । नव निधि यथा -पा, महापना, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द,

सत्य हरिश्चन्द्र ३९९