पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४३६

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दिया । कहता हुआ इधर उधर फिरता है) देखो कोई दिन वह हा ! यह नहीं कि राज छूटने पर भी छुटकारा हो अब यह था कि इसी मनुष्य विक्रय को अनुचित जानकर हम देखना पड़ा । हृदय तुम इस चक्रवर्ती की सेवा योग्य दूसरों को दंड देते थे पर आज वही कर्म हम आप करते बालक हो और स्त्री को बिकता देखकर टुकड़े टुकड़े हैं । देव बली है । (अरे सुनो भाई इत्यादि कहता हुआ क्यों नहीं हो जाते? इधर उधर फिरता है । ऊपर देखकर) क्या कहा ? (बारंबार लंबी सांसें लेकर आसू बहाता है)। 'क्यों तुम ऐसा दुष्कर कर्म करते हो ?" आर्य यह मत शै.-- (कोई महात्मा इत्यादि कहती हुई ऊपर पूछो, यह सब कर्म की गति है । (ऊपर देखकर) क्या देखकर) क्या कहा ? 'क्या क्या करोगी?' पर पुरुष कहा ? 'तुम क्या क्या कर सकते हो ; क्या समझते हो, से संभाषण और उच्छिष्ट भोजन छोड़कर और सब और किस तरह रहोगे ?' इस का क्या पूछना है। सेवा करूंगी । (ऊपर देखकर) क्या कहा ? पर इतने स्वामी जो कहेगा वही करेंगे ; समझते सब कुछ हैं पर मोल पर कौन लेगा?'आर्य कोई साधु ब्राह्मण महात्मा इस अवसर पर कुछ समझना काम नहीं आता; और कृपा करके लेही लेंगे। जैसे स्वामी रक्खेगा वैसे रहेंगे । जब अपने को बेच ही दिया तब इसका क्या विचार है। (ऊपर देखकर) क्या (उपाध्याय और बटुक आते हैं) कहा ? 'कुछ दाम कम करो।'आर्य हम लोग तो क्षत्रिय उ.-क्यों रे कौडिन्य ! सच ही दासी बिकती हैं, हम दो बात कहां से जानें । जो कुछ ठीक था कह ब.- हाँ गुरुजी क्या मैं मूठ कहूंगा । आप ही (नेपथ्य में से) देख लीजिएगा। आर्यपुत्र ! ऐसे समय में हम को छोड़े जाते हो । तुम उ.-तो चल, आगे आगे भीड़ हटाता चल । वास होगे तो मैं स्वाधीन रहके क्या करूंगी। स्त्री को देख धाराप्रवाह की भांति कैसे सब काम काजी लोग अनागिनी कहते हैं, इससे पहिले बाया अंग बेच लो तब इधर से उधर फिर रहे हैं । भीड़ के मारे पैर धरने की दहिना अंग बेचो। जगह नहीं है, और मारे कोलाहल के कान नहीं दिया जाता । है.- (सुनकर बड़े शोक से) हा! रानी की यह दशा इन आंखों से कैसे देखी जायगी! ब.-(आगे आगे चलता हुआ) हटो भाई हटो (सड़क पर शैव्या और बालक फिरते हुए दिखाई पड़ते (कुछ आगे बढ़कर) गुरुजी यह जहां भीड़ लगी है वहीं होगी। उ.-(शैव्या को देखकर) अरे यही दासी बिकती शै. कोई महात्मा कृपा करके हमको मोल ले लो बड़ा उपकार हो। शै.-(अरे कोई हम को मोल ले इत्यादि कहती बा.-अम को भी कोई मोल ले तो बला उपकाल और रोती है) ओ। बा.- (माता की भांति तोतली बोली से कहता शै.-(आखों में आंसू मरकर) पुत्र! चन्द्रकुल- हैं)। भूषण महाराज वीरसेन का नाती और सूर्यकुल की शोभा उ.- पुत्री ! कहो तुम कौन कौन सेवा करोगी ? महाराज हरिश्चन्द्र का पुत्र होकर तू क्यों ऐसे कातर शै. - पर पुरुष से सम्भाषण और उच्छिष्ट बचन कहता है । मैं अभी जीती हूँ! (रोती है) भोजन छोड़कर और जो-२ कहिएगा सब सेवा बा.- (मा' का अंचल पकड़ के) मा ! तुमको | करूंगी । कोई मोल लेगा तो अम को बी मोल लेगा । आ आमा वाह ! ठीक है । अच्छा लो यह सुवर्ण । लोती काए को औ । (कुछ रोना सा मुंह बना के शैव्या हमारी ब्राह्मणी अग्निहोत्र के अग्नि की सेवा के घर के का आंचल पकड़ के झूलने लगता है)। काम काज नहीं कर सकती सो तुम सम्हालना । शै.- (आंसू पोंछकर) पुत्र ! मेरे भाग्य से पूछ । शै.- (हाथ फैलाकर) महाराज आपने बड़ा ह.-अहह ! भाग्य ! यह भी तुम्हें देखना था । उपकार किया। हा ! अयोध्या की प्रजा रोती रह गई हम उनको कुछ उ.-शैव्या को भली भांति देखकर आपही आप), धीरज भी न दे आए। उनकी अब कौन गति होगी। आहा ! यह निस्संदेह किसी बड़े कुल की है । इसका 540 भारतेन्दु समग्न ३९२