पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४११

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गाँसी ।। चन्दनदास को वधस्थल में ले चलें। (दोनों जाते है। इति प्रवेशक स्थान - बाहरीप्रांत में प्राचीन वारी (फाँसी हाथ में लिए हुए एक पुरुष आता है) पुरुष- षट गुन सुदृढ़ गुथी मुख फाँसी । जय उपाय परिपाटी रिपु-बंधन मैं पटु प्रति पोरी । जय चाणक्य नीति की डोरी । आर्य चाणक्य के चर उंदुर ने इसी स्थान में मुझको अमात्य राक्षस से मिलने को कहा है । (देख कर) यह अमात्य राक्षस सब अंग छिपाए हुए आते हैं । तब तक इस पुरानी बारी में छिपकर हम देखें कि यह कहाँ ठहरते हैं (छिपकर बैठता है) (सब अंग छिपाए हुए राक्षस आता है) राक्षस-(आँखों में आँसू भर के) हाय ! बड़े कष्ट की बात है। आनय बिनसें और पैं जिमि कुलटा तिय जाय । तजि तिमि नंदहि चञ्चला चंद्रहि लपटी धाय ।। देखा देखी प्रजहु सब कीनो ता अनुगौन ।। तजि के निज नृप नेह सब कियो कुसुमपुर मौन ।। होइ बिफल उद्योग मैं, तजि के कारज भार । आप्त मित्रहू थकि रहे, सिर बिनु जिमि अहि छार ।। तजि कै निज पति भुवन पति सुकुल जाय नृप नंद । श्री वृषली गइ वृषल ढिग सील त्यागि वारि छंद ।। जाइ तहाँ थिर ह्वै रही निज गुन सहज बिसारि । बस न चलत जब बाम विधि सब कछु देत बिगारी ।। नंद मरे सैलेश्वरहि देन चपो हम राज । सोऊ बिनसे तब कियो ता सुत हित सो साज ।। बिगरयौ तौन प्रबंध हू, मिट्यौ मनोरथ मूल । दोस कहा चाणक्य को देवहि भो प्रतिकूल ।। वाह रे म्लेच्छ मलयकेतु की मूर्खता ! जिसने इतना नहीं समझा कि मरे स्वामिह नहिं तज्यौ जिन निज नृप अनुराग । लोभ छाड़ि दे प्रान जिन करी सत्रु सों लाग ।। सोई राक्षस शत्रु सो मिलिहै यह अंधेर । इतनो सुझयौ वाहि नहिं दई दैव मति फेर ।। सो अब भी शत्रु के हाथ में पड़के राक्षस नाश हो जायगा, पर चंद्रगुप्त से संधि न करेगा । लोग झूठा कहें, यह अपयश हो, पर शत्रु की बात कौन सहेगा ? (चारों ओर 'देखकर) हा ! इसी प्रांत में देव नंद रथ पर चढ़कर फिरने आते थे। इतहि देव अभ्यास हित सर तजि धनु संघानि । रचत रहे भुव चित्र सम सुचक्र परिखानि ।। जहं नृपगन संकित रहे इत उत थमे लखात । सोई भुव ऊजर भई दृगन लखी नहिं जात ।। हाय ! यह मंदभाग्य अब कहाँ जाय ? (चारों ओर देखकर) चलो, इस पुरानी बारी में कुछ देर ठहरकर मित्र चंदनदास का कुछ समाचार लें । (घूमकर आप ही आप) अहा ! पुरुष के भाग्य की उन्नति-अवनति की भी क्या क्या गति होती है कोई नहीं जानता । जिमि न ससि कह सब लखत निज निज करहि उठाय।। तिमि पुरजन हम को रहे लखत अनंद बढ़ाय ।। चाहत हे नृपगन सबै जासु कृपा दृग कोर । सो हम इत संकित चलत मानहुँ कोऊ चोर ।। वा जिसके प्रसाद से यह सब था, जब वही नहीं है तो यह हो हीगा । (देखकर) यह पुराना उद्यान कैसा भयानक हो रहा है। नसे बिपुल नृप कुल सरिस बड़े बड़े गृह जाल । मित्र नास सों साधुजन हिय सम सूखें ताल ।। तरुवर भे फलहीन जिमि बिधि बिगरे सब नीति । तृन सों लोपी भूमि जिमि मति लहि मूढ कुरीति ।। तीछन परसु प्रहार सो कटे तरोबर-गात । रोअत मिलि पिंड्रक सँग ताके घाव लखात ।। दुखी जानि निज मित्र कहँ अहि मनु लेत उसास । निज केंचुल मिस धरत हैं, फाहा तरु-ब्रन पास । तरुगन को सुख्यौ हियो, छिदे कीट सों गात । दुखी पत्र फल छाँह बिनु, मनु मसान सब जात ।। तो अब तक हम इस सिला पर, जो भाग्यहीनों को सुलभ है, लेटें । (बैठकर और कान देकर सुनकर) अरे ! यह शंख डंके से मिला हुआ नांदी शब्द कहाँ हो रहा है? अति ही तीखन होन सों फोरत स्रोता कान । जब न समायो घरन मैं तब इत कियो पयान ।। संख पटह धुनि सो मिल्यौ भारी मंगल नाद । निकस्यौ मनहु दिगत की दूरी देखन स्वाद ।। (कुछ सोचकर) हां, जाना । यह मलयकेतु के पकड़े जाने पर राजकुल(रुककर)मौर्यकुल को आनंद देने को हो रहा है । (आँखों में आँसू भर कर) हाय बड़े दु:ख की बात है। मेरे बिनु अब जीति दल शत्रु पाइ बल घोर । मोहि सुनावन हेतु ही कीन्हों शब्द कठोर ।।। पुरुष- अब तो यह बैठे हैं तो अब आर्य चाणक्य की आज्ञा पूरी करें। (राक्षस की ओर न मुद्रा राक्षस ३६७