पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४०७

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(जाता है मन शुद्ध नहीं है। क्योंकि - जिमि जे जनमें ते मरे, मिले अवसि बिलगाहिं । रहत साध्य तें अन्वित अरु विलसत निज पच्छहिं । तिमि जे अति ऊँचे चढ़े, गिरि हैं संसय नाहिं ।। सोई साधन साधक जो नहिं छुअत बिपच्छहिं।। प्रति-(आगे बढ़ कर) अमात्य ! कुमार यह जो पुनि आपु असिद्ध सपच्छ विपच्छ्हु में सम । विराजते हैं, आप जाइए । कछु कहुँ नहिं निज पच्छ माहि जाको है संगम ।। राक्षस-अरे, कुमार यह बैठे हैं। नरपति ऐसे साधनन को अनुचित अंगीकार करि । लखत चरन की ओर हू, तऊ न देखत ताहि । सब भाँति पराजित होत हैं बादी लौं बहु विधि बिगरि ।। अचल दृष्टि इक ओर ही, रही बुद्धि अवगाहि ।। वा जो लोग चंद्रगुप्त से उदास हो गए हैं वही लोग इधर कर पै धारि कपोल निज लसत भुको अवनीस । मिले हैं, मैं व्यर्थ सोच करता हूँ । (प्रगट) प्रियंवदक ! | दुसह काज के भार सों मनहुँ नमित भो सीस ।। कुमार के अनुयायी राजा लोगों से हमारी ओर से कह दो | (आगे बढ़कर) कुमार की जय हो ! कि-अब कुसुमपुर दिन-दिन पास आता जाता है, इससे मलय.- आर्य ! प्रणाम करता हूँ । आसन पर सब लोग अपनी सेना अलग-अलग करके जो जहाँ विराजिय । नियुक्त हों वहाँ सावधानी से रहें । (राक्षस बैठता है) आगे खस अरु मगध चलें जयध्वजहिं उड़ाए। मलय.- आर्य ! बहुत दिनों से हम लोगों ने यवन और गंधार रहें मधि सेन जमाए ।। आपको नहीं देखा। वेदि-इन-सकराज लोग पीछे सों धावहिं ।। राक्षस-कुमार ! सेना को आगे बढ़ाने के कोलूतादिक नृपति कुमारहि घेरे आवाह ।। प्रबंध में फँसने के कारण हमको यह उपालंभ सुनना पिय-अमात्य की जो आज्ञा । पड़ा। (प्रतिहारी आती है) मलय. अमात्य ! सेना के प्रयाण का आपने प्रति.- अमात्य की जय हो । कुमार अमात्य क्या प्रबंध किया है ? मैं भी सुनना चाहता हूँ। को देखना चाहते हैं। राक्षस- कुमार ! आपके अनुयायी राजा लोगों राक्षस भद्र! क्षण भर ठहरो । बाहर कौन को यह आज्ञा दी है । ('आगे खस अरू मगध' इत्यादि छंद पढ़ता है)। है (एक मनुष्य आता है) मलय.- (आप ही आप) हाँ, जाना ; जो हमारा अमात्य ! क्या आज्ञा है? नाश करने के हेतु चंद्रगुप्त से मिले हैं वही हमको घेरे राक्षस-भद्र ! शकटदास से कहो कि जब से | रहेंगे । (प्रकाश) आर्य, अब कुसुमपुर से कोई आता है या वहाँ जाता है कि नहीं? कुमार ने हमको आभरण पहराया है तब से उनके सामने नंगे अंग जाना हमको उचित नहीं है । इससे जो राक्षस-अब यहाँ कसी के आने जाने से क्या तीन आभरण मोल लिए हैं उनमें से एक भेज दें। प्रयोजन । पाँच छ : दिन में हम लोग ही वहां पहुंचेगे । मनुष्य-जो अमात्य की आज्ञा । (बाहर जाता मलय.-(आप ही आप अभी सब खुल जाता है और आभरण लेकर आता है) अमात्य ! अलंकार | है । (प्रगट) जो यही बात है तो इस मनुष्य की चिट्ठी लेकर आपने कुसुमपुर क्यों भेजा था ? लीजिए। राक्षस- (अलंकार धारण करके) भद्रे ! राक्षस- (देखकर) अरे ! सिद्धार्थक है ? भद्र ! यह क्या? राजकुल में जाने का मार्ग बतलाओ । प्रति.- इधर से आइए । सिद्धा.- (भय और लज्जा नाट्य करके) अमात्य ! हमको क्षमा कीजिए । अमात्य ! हमारा कुछ राक्षस- अधिकार ऐसी बुरी वस्तु है कि भी दोष नहीं है, मार खाते-खाते हम आपका रहस्य निर्दोष मनुष्य का भी जी डरा करता है। छिपा न सके। सेवक प्रभु सों डरत सदाहीं । पराधीन सपने सुख नहीं ।। राक्षस-भद्र । वह कौन सा रहस्य है यह जे ऊंचे पद के अधिकारी । हमको नहीं समझ पड़ता ! तिनको मनहीं मन भय भारी ।। सिद्धा.-निवेदन करते हैं, मार खाने से । सबही द्वेष बड़न सो करहीं। (इतना ही कह वह लज्जा से नीचा मुंह कर लेता है ।) अनुछिन कान स्वामी को भरहीं ।। मलय.- भागुरायण ! स्वामी के सामने लज्जा मनुष्य मुद्रा राक्षस ३६३ 26