पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४००

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लिया! चाहते, कुमार के सेनापति शिखरसेन के द्वारा रहेंगे।। दो जब जब चाणक्य चंद्रगुप्त की आज्ञा भंग करे तब दुष्ट मंत्री ही के डर तो चन्द्रगुप्त को छोड़कर यहाँ सब तब तुम ऐसे श्लोक पढ़ो जिससे उसका जी और फिर बात का सुबीता जानकर कुमार का आश्रय लिया है।" चाय । सो उन लोगों की बात का मैंने आशय नहीं समझा। राक्षस -हाँ तब ? भागु.- कुमार! यह तो ठीक ही है, क्योंकि कर.- तब मैने पटने से जाकर स्तनकलस से अपने कल्याण के हेतु सब लोग स्वामी का आश्रय हित आपका संदेशा कह दिया । और प्रिय के द्वारा करते हैं। राक्षस-तब? मलय.-मित्र भागुरायण ! तो फिर राक्षस मंत्री कर.- इसके पीछे नंदकुल के विनाश से दु:खी तो हम लोगों का परम प्रिय और बड़ा हितू है। लोगों का जी बहलाने के हेतु चंद्रगुप्त ने कुसुमपुर में भागु.- ठीक है, पर बात यह है कि अमात्य कौमुदीमहोत्सव होने की डौड़ी पिटा दी और उसको राक्षस का बैर चाणक्य से है, कुछ चन्द्रगुप्त से नहीं है, बहुत दिन से बिछुड़े हुए मित्रों के मिलाप की भाँति पुर इससे तो चाणक्य की बातों से रूठकर चन्द्रगुप्त उससे के निवासियों ने बड़ी प्रसन्नता पूर्वक स्नेह से मान मंत्री का काम ले ले और नन्दकुल की भक्ति से "यह नंद ही के वंश का है" यह सोचकर राक्षस चन्द्रगुप्त से राक्षस- (आँसू भरकर) हा देव नंद! मिल जाय और चन्द्रगुप्त भी अपने बड़े लोगों का पुराना जदपि उदित कुमुदन सहित पाइ चाँदनी चंद । मंत्री समझकर उसको मिला ले, तो ऐसा न हो कि तदपि न तुम बिन लसत हे नृपससि । जगदानंद ।। कुमार हम लोगों पर भी विश्वास न करें। हाँ. फिर क्या हुआ ? मलय.- ठीक है, मित्र भागुरायण । राक्षस कर.- जब चाणक्य दुष्ट ने सब लोगों के नेत्र मंत्री का घर कहाँ है ? के परमानंददायक उस उत्सव को रोक दिया और उसी भागु.- इधर, कुमार, इधर । (दोनों घूमते हैं) समय स्तनकलस ने ऐसे-ऐसे श्लोक पढ़े कि राजा का कुमार । यही राक्षस मंत्री का घर है चलिए । भी मन फिर जाय । मलय.- चलें । (दोनों भीतर जाते हैं। राक्षस-कैसे श्लोक थे। राक्षस- अहा ! स्मरण आया । (प्रकाश) कहो कर.- ('जिनको बिधि सब' पढ़ता है) जी ! तुमने कुसुमपुर में स्तनकलस वैतालिक को देखा राक्षस-वाह मित्र स्तनकलस, वाह क्यों न था? हो ! अच्छे समय में भेद बीज बोया है, फल अवश्य कर.- क्यों नहीं? होगा । क्योंकि राक्षस-मित्र भागुरायण ! जब तक कुसुमपुर नृप रूठे अचरज कहा, सकल लोग जा संग । की बातें हों तब तक हम लोग इधर ही ठहरकर सुनें | छोटे छ मानें बुरो परे रंग में भंग ।। कि क्या बात होती है, क्योंकि - मलय.-ठीक है । ('नृप रूठे' यह दोहा फिर भेद न कछु जामैं खुलै याही भय सब ठौर । पढ़ता है)। नृप सों मंत्रीजन कहहिं बात और है, और ।। राक्षस- हाँ फिर क्या हुआ ? भागु.- जो आज्ञा । (दोनों ठहर जाते हैं) कर.- तब आज्ञा भंग से रुष्ट होकर चंद्रगुप्त ने राक्षस- क्यों जी ! वह काम सिद्ध हुआ ? आपकी बड़ी प्रशंसा को और दुष्ट चाणक्य से अधिकार कर.- अमात्य की कृपा से सब काम सिद्ध ही मलय.-मित्र भागुरायण ! देखो प्रशंसा करके मलय.- मित्र भानुरायण । वह कौन-सा काम राक्षस में चंद्रगुप्त ने अपनी भक्ति दिखाई । है? भागु.- गुण-प्रशंसा से बढ़कर चाणक्य का भागु.- कुमार मंत्री के जी की बातें बड़ी गुप्त अधिकार लेने से। हैं । कौन जाने ? इससे देखिए अभी सुन लेते हैं कि राक्षस- क्यों जी. एक कौमुदीमहोत्सव के क्या कहते हैं। निषेध ही से चाणक्य चंद्रगुप्त में बिगाड़ हुआ कि कोई राक्षस-अजी, भली भाँति कहो। और कारण भी है। कर.-सुनिए जिस समय आपने आज्ञा दिया मलय.- क्यों मित्र भागुराय ! एक और बैर मे कि करभक, तुम जाकर वैतालिक स्तनकलस से कह यह क्या फल निकालेंगे? भारतेन्दु समग्र ३५६ ले लिया ।