पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३९३

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torka बहुत कठिन है। क्योंकि डिगत न नेकहु विषय पथ दृढ़ प्रतिज्ञ दृढ़ गात । (चारों ओर देखकर) कंचुकी ! यह क्या ? नगर में गिरन चहत सम्हरत बहुरि नेकु न जिय घबरात ।। 'चंद्रिकोत्सव' कहीं नहीं मालूम पड़ता ; क्या तूने सब (नेपथ्य में - इधर महाराज इधर । राजा और लोगों से ताकीद करके नहीं कहा था कि उत्सव हो? प्रतिहारी आते हैं) कंचुकी महाराज सबसे ताकीद कर दी थी। राजा-(आप ही आप) राज उसी का नाम है राजा- तो फिर क्यों नहीं हुआ ? क्या लोगों ने जिसमें अपनी आज्ञा चले, दूसरे के भरोसे राज करना हमारी आज्ञा नहीं मानी ? भी एक बोझा होना है। क्योंकि कंचुकी- (कान पर हाथ रखकर) राम राम ! जो दूजे को हित करें तो खोवै निज काज । भला नगर क्या, इस पृथ्वी में ऐसा कौन है जो आपकी जो खायो निज काज तो कौन बात को राज ।। आज्ञा न माने? दजे ही को हित करै तो वह परबस मूढ़ । राजा- तो फिर चंद्रिकोत्सव क्यों नहीं हुआ ? कठ पुतरी सो स्वाद कछु पावै कबहुँ न कूढ़ ।। देख न- और राज्य पाकर भी इस दुष्ट राजलक्ष्मी को सम्हालना गज रथ बाजि सजे नहीं, बंधी न बंदनवार । तने बितान न कहुँ नगर, रंजित कहूँ न द्वार ।। कूर सदा भाखत पियहि चंचल सहज सुभाव । न नारी डोलत न कहुँ फूल माल गल डार । नर गुन औगुन नहिं लखति सज्जन खल सम भाव ।। नृत्य बाद धुनि गीत नहिं सुनियत भवन मझार ।। डरति सूर सो भीरु कह गिनति न कछु रति-हीन । कंचुकी-महाराज ! ठीक है, ऐसा ही है । बारनारि अरु लच्छमी कहो कौन बस कीन? ।। राजा-क्यों ऐसा ही है ? यद्यपि गुरु ने कहा है कि तू झूठी कलह करके कंचुकी -महाराज योही है। स्वतंत्र होकर अपना प्रबंध कर ले, पर यह तो बड़ा राजा-स्पष्ट क्यों नहीं कहता? पाप सा है । अथवा गुरुजी के उपदेश पर चलने से कंचुकी -महाराज! चंद्रिकोत्सव बंद किया हम लोग तो सदा ही स्वतंत्र हैं। गया है। जब लौं बिगारै काज नहिं तब लौ न गुरु कछु तेहि कहै। राजा-(क्रोध से) किसने बंद किया है ? पै शिष्य जाइ कुराह तो गुरु सीस अंकुस हवै रहै ।। कंचुकी - (हाथ जोड़कर) महरााज! यह मैं तासों सदा गुरु-वाक्य-वश हम नित्य पर आधीन है। नहीं कह सकता। निर्लोभ गुरु से संत जन ही जगत में स्वाधीन है ।। राजा-कहीं आर्य चाणक्य ने तो नहीं बन्द (प्रकाश) अजी वैहीनर ! सुगांगप्रासाद का मार्ग किया? दिखाओ। कंचुकी-महाराज ! और किसको अपने प्राणों कंचुकी '- इधर आइए, महाराज, इधर । से शत्रुता करनी थी? (राजा आगे बढ़ता है) राजा--(अत्यंत क्रोध से) अच्छा, अब हम कंचुकी - महाराजा! सुगांगप्रासाद की यही सीढी है। कंचुकी-महाराज! यह सिंहासन है, राजा-(ऊपर चढ़कर) अहा ! शरद मृतु की बिराजिए। शोभा से सब दिशाएं कैसी सुंदर हो रही हैं। राजा- (बैठकर क्रोध से) अच्छा, कंचुकी ! क्योंकि आर्य चाणक्य से कह कि 'महाराज आपको देखा चाहते सरद बिमल मृतु सोहई निरमल नील प्रकास ।। निसानाथ पूरन उदित सोलह कला प्रकास । कंचुकी-जो आज्ञा । (बाहर जाता है) चारु चमेली बन रही महमह महँकि सुबास । (एक ओर परदा उठता है और चाणक्य बैठा नदी तीर फूले लखौ सेत सेत बहु कास ।। हुआ दिखाई पड़ता है। कमल कुमोदिनि सरन में फूले सोभा देत । चाणक्य-(आप ही आप) दुष्ट राक्षस हमारी भौंर वृंद जापै लखौ गुजि जि रस लेत । बराबरी करता है, जानता है कि - बसन चाँदनी. चंद मुख, उडुगन मोती माल ।। जिमि हम नृप-अपमान सों महा क्रोध उर धारि । कास फूल मधु हास, यह सरद किधौं नव बाल ।। ' करी प्रतिज्ञा नंद नृप नासन की निरधारि ।। NG मुद्रा राक्षस ३४९ बैठेंगे।