पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३७३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

और ठीक ऐसा ही हुआ - जब राक्षस के साथ नंद श्रादशाला में आया और एक अनिमंत्रित ब्राह्मण को आसन पर बैठा हुआ और श्राद्ध के अयोग्य देखा तो चिढकर आज्ञा दी कि इसको बाल पकड़कर यहाँ से निकाल दो । इस अपमान से ठोकर खाए हुए सर्प की भाँत अत्यंत क्रोधित होकर शिखा खोलकर चाणक्य ने सब के सामने प्रतिज्ञा की कि जब तक इस दुष्ट राजा का सत्यानाश न कर लूँगा तब तक शिखा न बांधूंगा । यह प्रतिज्ञा करके बड़े क्रोध से राजभवन से चला गया । आशय न समझ सका ; किंतु चंद्रगुप्त ने सोचकर कहा कि अंगीठी यह दिखलाने को भेजी है कि मेरा क्रोध अग्नि है और सरसों यह सूचना कराती है कि मेरी सेना असंख्य है और फल भेजने का आशय यह है कि मेरी मित्रता का फल मधुर है । इनके उत्तर में चंद्रगुप्त ने एक घड़ा जल और एक पिंजड़े में थोड़े से तीतर और एक अमूल्य रत्न भेजा, जिसका आशय यह था कि तुम्हारी सेना कितनी भी असंख्य क्यों न हो हमारे वीर उनको भक्षण करने में समर्थ हैं और तुम्हारा क्रोध हमारी नीति से सहज ही बुझाया जा सकता है और हमारी मित्रता सदा अमूल्य और एक रस है । ऐसे ही तीन पुतलीवाली कहानी भी इसी के साथ प्रसिद्ध है। इसी बुद्धिमानी के कारण चंद्रगुप्त से उसके भाई लोग बुरा मानते थे ; और महानंद भी अपने औरस पुत्रों का पक्ष करके इससे कुढता था । यह यद्यपि शूद्रा के गर्भ से था, परंतु ज्येष्ठ होने के कारण अपने को राज का भागी समझता था ; और इसी से इसका राजपरिवार से पूर्ण वैमनस्य था । चाणक्य और शकटार ने इसी से निश्चय किया कि हम लोग चंद्रगुप्त को राज का लोभ देकर अपनी ओर मिला लें और नंदों का नाश करके इसी को राजा बनावें । शकटार अवसर पाकर चाणक्य को मार्ग में से अपने घर ले आया और राजा की अनेक निंदा करके उसका क्रोध और भी बढ़ाया और अपनी सब दुर्दशा कह कर नंद के नाश में सहायता करने की प्रतिज्ञा की। चाणक्य ने कहा कि जब तक हम राजा के घर का भीतरी हाल न जाने कोई उपाय नहीं सोच सकते । शकटार ने इस विषय में विचक्षणा की सहायता देने का वृत्तांत कहा और रात को एकांत में बुलाकर चाणक्य के सामने उससे सब बात का करार ले लिया । महानंद को नौ पुत्र थे । आठ विवाहिता रानी से और एक चंद्रगुप्त मुरा नाम की नाइन स्त्री से । इसी से चंद्रगुप्त को मौर्य और वृषल भी कहते हैं । चंद्रगुप्त बड़ा बुद्धिमान था इसी से और आठों भाई इससे भीतरी द्वेष रखते थे। चंद्रगुप्त की बुद्धिमानी की बहुत सी कहानियां हैं । कहते हैं कि एक बेर रूम के बादशाह ने महानंद के पास एक कृत्रिम सिंह लोहे की जाली के पिंजड़े में बंद करके भेजा और कहला दिया कि पिंजड़ा टने न पावे और सिंह इसमें से निकल जाय । महानंद और उसके आठ औरस पुत्रों ने इसको बहुत कुछ सोचा. परन्तु बुद्धि ने कुड काम न किया । चंद्रगुप्त ने विचारा कि यह सिंह अवश्य किसी ऐसे पदार्थ का बना होगा जो या तो पानी से या आग से गल जाय, यह सोचकर पहले उसने उस पिंजड़े को पानी के कंट में रखा और जब वह पानी से न गला तो उस पिंजड़े के चारों तरफ आग बलावाई. उसकी गर्मी से वह सिंह लाह और राल का बना था गल गया । एक बेर एसे ही किसी बादशाह ने एक अंगीठी में दहकती हुई आग, एक बोरा सरसों और एक मीठा फल महानंद के पास अपने दत के द्वारा भेज दिया । राजा की सभा का कोई भी मनुष्य इसका यह सब सलाह पकी हो जाने के पीछे चाणक्य तो अपनी पुरानी कुटी में चला गया और शकटार ने चंद्रगुप्त और विचक्षणा को तब तक सिखा पढ़ाकर पक्का करके अपनी ओर फोड़ लिया । चाणक्य ने कटी में जाकर हलाहल विष मिले हुए कुछ ऐसे पकवान तैयार किए जो परीक्षा करने में न पकड़े जायँ, किन्तु खाते ही प्राण नाश हो जाय । विचक्षणा ने किसी प्रकार से महानंद को पुत्रों समेत यह पकवान खिला दिया, जिससे बेचारं सबके सब एक साथ परमधाम को सिधारे । चन्द्रगुप्त इस समय चाणक्य के साथ था। शकटार अपने दस और पापों से संतप्त होकर निविड़ बन में चला गया और अनशन करके प्राण त्याग किए। कोई कोई इतिहास लेखक कहते हैं कि चाणक्य ने अपने हाथ से शस्त्र द्वारा नन्द का वध किया और फिर क्रम से उसके पुत्रों को भी मारा, किन्तु इस विषय का कोई दृढ प्रमाण नहीं है। चाहे जिस प्रकार से हो चाणक्य ने नन्दों का नाश किया. किन्तु केवल पुत्र ? १. भारतवर्ष की कथाओ में लिखा है कि चाणक्य ने अभिचार से मारण का प्रयोग करके इन सभों को मार MORE मुद्रा राक्षस ३२९