पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३७१

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अंत में नंदवंश' ने पौरवों को निकालकर वहाँ अपनी भोजन का केवल दो सेर सत्तू देता था । जयपताका उड़ाई । वरच सारं भारतवर्ष में अपना शकटार ने बहुत दिन तक महामात्य का अधिकार प्रवल प्रताप विस्तारित कर दिया । भोगा था इससे यह अनादर उसके पक्ष में अत्यंत इतिहास ग्रंथों में लिखित है कि एक सौ अड़तीस दुखदाई हुआ । नित्य सत्त का बरतन हाथ में लेकर बरस नदवश ने मगध देश का राज्य किया । इसा वंश अपने परिवार में कहता कि जो एक भी नंदवंश को में महानंद का जन्म हुआ । यह बड़ा प्रसिद्ध और जड़ से नाश करने में समर्थ हो वह सत्तू खाय । मंत्री के अत्यंत प्रतापशाली राजा हुआ । जब जगद्विजयी सिकंदर (अनक्षेद्र) ने भारतवर्ष पर चढ़ाई की थी तव इस वाक्य से दखित होकर उसके परिवार का कोई भी असंख्य हाथी, बीस हजार सवार और दो लाख पैदल सत्तू न खाता । अन्न में कारागार की पीड़ा से एक एक करके उसके परिवार के सब लोग मर गए । लेकर महानंद ने उसके विरुद्ध प्रयाण किया था ।' सिद्धांत यह कि भारतवर्ष में उस समय महानद सा एक तो अपमान का दु:ख, दसर कुटुंब का नाश, प्रतापी और कोई राजा न था । इन दोनों कारणों से शकटार अत्यंत तनछीन मनमलीन महानंद के दो मंत्री थे । मुख्य का नाम शकटार था दीनहीन हो गया । किंतु अपने मनसुबे का ऐसा पक्का था कि शत्रु से बदला लेने की इच्छा से अपने प्राण नहीं और दूसरे का राक्षस था । शकटार शूद्र और राक्षस त्याग किए और थोड़े-बहत भोजन इत्यादि से शरीर को ब्राह्मण था । ये दोनों अत्यंत बुद्धिमान और महाप्रतिभासंपन्न थे । कंवल भेद इतना था राक्षस धीर | जीवित रखा । रात दिन इसी सोच में रहता कि किस उपाय से वह अपना बदला ले सकेगा। और गंभीर था. उसके विरुद्ध शकटार अत्यंत उद्धतस्वभाव था. यहाँ तक कि अपने प्राचीनपने के कहत हैं कि राजा महानंद एक दिन हाथ-मुंह धोकर भिमान में कभी कभी यह राजा पर भी अपना प्रभुत्व | हंसने-हंसते बनाने में आ रहे थे । विचक्षणा नाम की जमाना चाहता । महानंद भी अत्यंत उग्र स्वभाव. एक दासी जो राजा के मुंह लागने के कारण कुछ धृष्ट असहनशील और क्रोधी था. जिसका परिणाम यह हुआ हो गई थी. राजा को हँसता देख कर हँस पड़ी. राजा कि महानंद ने अंत को शकटार को क्रोधाध होकर बड़े उसकी दिठाई से बहत चिढ़ और उससे पूछा -- तु निविड बंदीखाने में कैद किया और सपरिवार उसके क्यों हंसी? उसन उत्तर दिया --- 'जिस बात पर १. नंदवंश सम्मिलित क्षत्रियो का वंश था । ये लोग शुद क्षत्री नहीं थे। २. सिकंदर के कान्यकुब्ज से आगे न बढ़ने से महानंद से उससे मुकाबिला नहीं हुआ । ३. बृहत्कथा में राक्षस मंत्री का नाम कहीं नहीं है. केवल वररुचि के एक सच्चे राक्षस से मैत्री की कथा यों लिखी है -एक बड़ा प्रचंड राक्षस पाटलिपुत्र में फिरा करता था । वह एक रात्रि वररुचि से मिला और पूछा कि 'इस नगर में कौन स्त्री सुंदर है ही वररुचि ने उत्तर दिया -- "जो जिसको रुचै वही सुंदर है ।" इस पर प्रसन्न होकर राक्षस ने उस से मित्रता की और कहा कि हम सब बात में तुम्हारी सहायता करेंगे और फिर सदा राजकाज में ध्यान में प्रत्यक्ष होकर राक्षस वररुचि की सहायता करता । ४. बृहत्कथा में यह कहानी और ही चाल पर लिखी है । वररुचि व्याड़ि और इंद्रदत्त तीनों को गुरुदक्षिणा देने के हेतु करोड़ों रुपए के सोने की आवश्यकता हुई । तब इन लोगों ने सलाह को कि नंद (सत्यनंद राजा के पास चलकर उससे सोना लें । उन दिनों राजा का डेरा अयोध्या में था. ये तीनों ब्राह्मण वहाँ गए किंतु संयोग से उन्हीं दिनों राजा मर गया । तब आपस में सलाह करके इंद्रदत योगबल से अपना शरीर छोड़कर राजा के शरीर में चला गया. जिससे राजा फिर जी उठा । तभी से उसका नाम योगानंद हुआ । योगानंद ने बररूचि को करोड़ रुपये देने की आज्ञा की । शकटार बड़ा बुद्धिान था : उसने सोचा कि राजा का मर कर जीना और एक बारगी एक अपरिचित को रूपया देना इसमें हो न हो कोई भेद है । ऐसा न हो कि अपना काम करके फिर राजा का शरीर छोड़कर यह चला जाय. यह सोचकर शकटार ने राज्य भर में जितने भी मुरते मिले उनको जलवा 'दिया. उसी में इंद्रदत्त का भी शरीर जल गया । जब व्याड़ि ने यह वृतांत योगानंद से कहा तो यह सुनकर वह पहिले तो दुखी हुआ पर फिर वररुचि को अपना मंत्री बनाया । अंत में शकटार की उग्रता से संतप्त होकर 'उसको अधे कएँ में कैद किया । बृहत्कथा में शकटार के स्थान पर शकटान ना लिखा है 0** मुद्रा राक्षस ३२७ AURKAK