पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३६४

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| निज बल बाहू विनिता अरजन देह दिखाय ।। तव सुत रथ हय घर बदी समर धुरि नभ जीन।। तो यह दास्न युद्धचिक्यो नहरे जिय सोय कौरवों में केसाकोलाहल पड़ गया देखिए। क.-आगे देखकर देव कौरवराज यह चलेटकार धनको होत घट बाहि सर संचारही विगा। (रथ पर बैठा दुर्योधन आता है) अ. इधर देखो (हाथ जोड़कर प्रणाम करके) हु.- (अर्जुन को देखकर क्रोध से) कचन वेदी पैठि बोपन प्रगट दिखावत । वह दस साह बनबास करि जीवन सों अकुलाय सूरज को प्रतिबिंब जहि मिति जाल तनावत ।। मरन हेतु आवो इते इकलो गरब बढ़ाय ।। अन्न उपनिषद भेट जान भय दूर भजायत ।। अ.-हंसकर) कोव कल गुरु पूज्य दोन अचारज आवत ।। काल केय बधिक निवातकवचन कह मारयो । कु. तो बड़े महानुभाव से जान पड़ते हैं। इकले साइव वहि उमार्यात युद्ध प्रचारयो ।। अ.-इधर देखो इकलेसी बज्ञ कृष्ण लखत भगिनी हरि छीनी । सिर पें बाकी जूट जटा मंडित छवि धारी अजून की रन नाहि नई इकली गति लीनी ।। अस्व रूप मनु श्राप दूसरो दुसह पुरारी ।। दु.- अब हंसने का समय नहीं है क्योंकि शवन को नित अजय मित्र को पूरन कामा अंधाधुध घोर संग्राम का समय है। गुरु मत मेरो मित्र खो यह अश्वत्थामा ।। अ.-(हंसकर) कु.--हा और बताइये। दूर रहो करनाथ नाहि यह छल जुना इत अ.-धनुर्वेद को सार जिन घट भरि पूरि प्रताप । पापी गन मिति दोदि को दासी कीनो जित ।। कनक काणशकारि धुन पायो सो कप कुरु गुरु अाप । यह रण वा जहां वान पासे हम डारे । कु.- और वह कुरुराज के सामने लड़ाई के हेतु रिपु गन सिर की गोंट जीति अपुने बला मारे ।। फेट कसे कौन सड़ा है। दु.-(क्रोध से) अ.-क्रोध से) चड़ी पहिरन सो गयो नेरो सर अभ्यास । | सब कुरुगन को अनय बीज चित अभिमानी। नर्तन साला जात किन इत पौरुष परकास ।। हि अस्व वृथा गरजत अपसानी ।। कु.- (मुंह चिढ़ाकर) आर्य इनको यह आप ठीक सत सुधन बिन बात दरप अपनो प्रगटाक्त । कहते है कि इनका बहुत दिन से धनुष चलाने का इंद्रक्ति लाह गर्व मरो रन को इत अवत ।। अभ्यास छूट गया है। कु.- (हस कर) इनका सब प्रभाष घोष यात्रा में जब बन मैं गधर्व गनन तुमको कोस बाध्यौ । प्रकट हो चुका है (दूसरी ओर दिखाकर) यह किसका तब करि अग्रज नेह गर्राज जिन तह सर साध्यौ ।। ध्वज है। लीन्हो तुम्हें हाइ जीति सूर गन छिन माहीं । अ. (प्रणाम करके) तब तुम शर अभ्यास लख्यो बिहबल हो नाहीं ।। पतिय जिन कबहु न लखी निज अहि इटाई। श्वेत केस मिस सो कीरति मनु तन लपटाई ।। परशुराम को तोष भयो जा सर के त्यागे। तोन पितामह भीष्म लखो यह आपत आगे ।। सूत! घोड़ों को बढ़ाओ (नेपथ्य में) मलनलो। समर जिलोकन को जुरे दि विमान सुर धाइ । (इन्दु, विवाघर और प्रतिहारी आते है) आश्चर्य से वातह सों भगरे बली तो निक्लन भय होय आते है। S*** tek मगपति विद्या.-देव यह बालक बढ़ा दीठा है। इ.- क्यों न हो राजा का लड़का दु.- भूत ! ब्राह्मणों की भांति इस कोरी बकवाद से फल क्या है । यह पृथ्वी ऊंदी नीची है इससे तुम अघ समान पृथ्वी पर अ.- जो करराज को हरा (दोनों जाते हैं) विद्या.- (अजुन का रथ देखकर) देव ! और अरनी' मंथन झांगांन धम होससी सीन ।। ई.- क्यों न हो तुम महा कोष हो। विद्या. - देव ! देखिए अर्जुन के पास पहुचते ही तो बार और उत अशी रथी समुदाय ।। गाय हिन हिनात अनेक गज सर साइ श्योर चिकारहीं । नाह सत तू धन्य भार इकलो देत भजाय ।। यह धहि बाजे मार धरू धनि दर्षांत धीर उचारही | सनि सबद रन को बरन पति सुरवधू तन सिंगारहीं ।। भारतेन्दु समर ३२२