पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३४३

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SHO औत्सुक्येन कृतत्वरा सह भुवा व्यावर्तमाना हिया । तेस्तैर्बन्धूजनस्य वचनै नीता भिमुख्यं पुन : ।। दृष्टाव ग्रे वरमात्तसाध्वसरसा गौरी नवे संगमें । 'सरोहतपुलका हरेण हसता शिवायास्तु वः ।। पार्वती प्रथम समागम के समय पहिले तो उत्कण्ठित हो कर जल्दी से चलीं परंतु जब थोड़ी दूर गई तो स्वभाव ही से लजा कर फिर पीछे हटी । जब बंधुजनों की स्त्रियों ने अनेक प्रकार से समझाया तो फिर सन्मुख हुई और जब पति को आगे देखा तो इनको अति भय हुआ और इन के अंग में रोमाञ्च हो आया तब शिव जी ने हंसकर कर कंठ से लगा लिया । ऐसी पार्वती तुम्हारा कल्याण करें। क्रोधेद्वैदृष्टिपातैस्त्रिभिरूपशमिता वन्हयो मीत्रयो पि त्रासार्तामृत्विजो धश्चपलगणहृतोष्णीषपट्टा :पतन्ति ।। दक्ष :स्तौत्यस्य पत्नी विलपति करुणं चापि देवैः । शंसन्नित्यात्तहासोमखमथनविधौ पातदेव :शिवो वः ।। प्रज्वलित हमारी तीनों दृष्टियों के पड़ने से ये तीनों अगिन बुझ गई । हमारे चंचल गणों ने ऋत्विकों के माथे की पाग छीन ली हैं और वे मारे डर के मुंह के बल गिरे पड़ते हैं । दक्ष स्तुति करता है इस की स्त्री करुणा कर के रोती है देवता सब भाग गये । शिव जी दक्ष के यज्ञ के विध्वंस के समय यह कहते हुए तुम्हारी रक्षा तब तक घर से सुघर घरनी को बुला कर कुछ गाना आरंभ करें (घूमकर और नेपथ्य की ओर देखकर) यही मेरा घर है इसके भीतर चलें (कुछ आगे बढ़कर) प्यारी इधर आइयो । नटी आई । नटी-प्राणनाथ ! मैं आई हूँ। कहिये आज कौन सी लीला करनी है । सु.- प्यारी! इन राजा लोगों को रत्नावली देखने की बड़ी इच्छा है सो तुम जाकर नेपथ्य के सब साजों को सम्हालो । नटी- (चिन्ता से लंबी सांस लेकर) प्राणनाथ ! आप इस बेला निचिन्त हो आप क्यों न नाचौगे मुझ अभागिनि की तो एक ही कन्या है उसे भी आपने दूसरे देश में देने कहा है । ऐसे दूर रहनेवाले बर से उसका ब्याह कैसे होग इस सोच में मुझे तो अपने देह की भी सुधि नहीं है । नाचना कैसा । सु.- प्यारी! बर दूर देश में है इस बात की कुछ चिन्ता न करो, क्योंकि - जौ विधना अनुकूल तौ दीपन सों सब लाय । सागर मधि दिग अंत सों तुरतहि देत मिलाय ।। (नेपथ्य में। सू.- (सुनकर नेपथ्य की ओर देखकर) प्यारी अब क्यों बिलंब करती हो यह मेरा छोटा भाई यौगंधरायन बन के आया है। आओ हम लोग भी चलकर अपना २ भेष धारण करें। (यह कह के दोनों चले जाते हैं) (इति प्रस्तावना) बहुत प्रसन्न भेष से योगन्धरायन आता है। यौ.- यह सच है इसमें कुछ संदेह नहीं । (जो विधना अनुकुल इत्यादि फिर से पढ़ता है) जो ऐसा न होता तो ये अनहोनी बातें कैसे होती कि हमने सिद्ध के बात का विश्वास करके सिंहल दीप के राजा की कन्या अपने स्वामी के लिये मांगी और जब उसने भेजी तो जहाज टूट जाने से वह डूबने लगी और एक तखते पर जो उसको मिल गया था बहती फिरी और संयोग से उसी समय कौशाम्बी के एक महाजन ने जो सिंहल दीप से फिरा आता था उसे बहते देखा और उसके गले की रत्नमाला से इसने जाना कि कोई बड़े घर की बेटी है इससे वह उसको यहाँ लाया (प्रसन्न होकर) सब भांति हमारे स्वामी की बढ़ती ही होती जाती है (विचार कर के) और हम ने भी उस कन्या को बड़े गौरव से रानी को सौंपा है यह बात अच्छी हुई । अब सुनने में आया है। कि हमारे महाराज के व्याभ्रव्य कंचुकी और सिंहलेश्वर नांदी के पीछे सूत्रधार आता है। सूत्रधार- बस बहुत बढ़ाने का कुछ काम नहीं । आज इस बसन्तोत्सव में महाराज श्रीहर्ष देव के चरण कमल के आश्रित राजा लोग जो बहुत देशों से आकर इकट्ठे हुए हैं उन लोगों ने हम को बड़े आदर से बुला कर कहा है कि हमारे स्वामी श्रीहर्षदेव नो जो बहुत अपूर्व रत्नावली नाटिका बनाई है उस का वृत्तान्त हम लोगों ने बहुत लोगों के मुंह से सुना है पर अब तक उस की लीला नहीं देखी । इस वास्ते सब लोगों के चित्त को आनंद देनेवाले उनके बहुत मान से और हम लोगों पर अनुग्रह की दृष्टि से उस नाटिका की लीला कीजिये (घूम कर और चारों तरफ देख कर) अब इस समय नेपथ्य रचना कर लूँ तो फिर जो करना हो करूं (सब लोगों की तरफ देख कर) अरे मुझे निश्चय होता है कि सब सभासदों का मन इसी ओर लगा है ।। क्यों न होय । श्री हर्ष सो अति निपुन कवि यह सभा जन गुन को धरै । जग बत्सराज चरित्र मनहर हम ललित लीला करै ।। इन सबन सों जहं होय एकहु मिलहि मन बांछित घने । यद उदय मेरे भाग्य का जह सकल गुन गन है बने ।१ रत्नावली ३०१