पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३४१

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निष्कलंक कुल में उत्पन्न होकर ऐसे बुरे कर्म में | दुख को कहु नाम न नेकु लखाई ।। अपना नाम प्रगट करने से प्राणत्याग करना उत्तम है। मंगल छाइ रहयो चहुओर वासीसत (सुलोचना और चपला के संग विद्या नीची आँख सब लोग जुगाई। किये हुए भाती है। जोरी जियो दुलहा दुलही की बि.- (धीरे से) सखी में पिता को मुंह कैसे बधाई बधाई बधाई बधाई ।। दिखाऊंगी। सुं.-महाराज, आप ने मुझे यद्यपि सब सुख सुलो.- धीरे से) जब पिता ने बुला भेजा है तो दिया तथापि एक प्रार्थना और है। कौन सी लग्जा है। राजा.-को ऐसी कोन सी वस्तु है जो तुम को रा.-आ मेरी प्यारी बेटी इधर आ, आज तक अदेय है। मैने तुझे अनेक दु:ख दिये ये पर वे मब दुख आज सुं.- (हाथ जोड़कर) महाराज ने यद्यपि मालिन | सम्पूर्ण हो गये (उठकर विद्या का हाथ पकड़ कर प्यार को प्राण दान दिया है परन्तु देश से निकाल्न देने की | यह लो वीरसिंह का सर्वस धन मैं तुम्हें आज समर्पण | आआ है सो अम उसके सभ अपराध क्षमा किये जाय । करता हूँ (विद्या का हाथ सुन्दर के हाथ में देता है और प.-(हंस कर) जो तुम चाहते हो सोई होगा | नेपथ्य में बाजा बजता है और जानन्द के शब्द से | (मंत्री से) भन्त्री, मालिन के सब अपराध क्षमा हुए. | रंगभूमि पर जाती है। यह बात तो कहना सर्वथा | इस से अब उसे कोई दण्ड न दिया जाय । सं.-जो आज्ञा अनुचित है कि इस कन्या पर प्रीति रखना क्योंकि जो परस्पर आयन्त नेह न होता तो क्यों सहते परन्तु रा.-(मन्त्री से) मन्त्री, अब तुम शीघ्रही व्याह | ईश्वर से प्रार्थना करता है कि बाज से फिर तुम्हें कोई के सब मंगल साज सजो जिस में नगर में कहीं शोच का दुख न हो और सर्वदा अखण्ड सुख करो और शीघ्र ही नाम न रहै क्योंकि पुरवासियों को दुलहा दुलहिन के एक बालक हो जिस के देखने से हमारा हत्य और देखने की बड़ी अभिलाषा है और मैं घर पधू को लेकर आशीतल हो। रनिवास में जाता हूँ। मं.-महाराज, हम लोगों का जीवन आज (दोनों दण्डवत करते है) सुं.- महाराज, आप की दया से मेरे सब दुख दूर | सुफल हुआ। हुए पर यह शंका है कि मैं आप की प्रसन्नता के हेतु विद्यासुन्दर दूसरी जोर से और उन के पीछे सखी जाती (मंत्री और भाट एक ओर से जाते है और राजा और कोई योग्य सेवा नहीं कर सका। गं.- है। आज अनन्द भयो अति ही विपदा सब की दुरि दुरि नसाई। जवनिका पतन होती है) नेपच्य में मंगल का बाजा बजता है। | मोद बढ़यो परजागन को ।। इति ।। विद्यासुंदर २९९ 22