पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३३१

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सुलोचना- (बीड़ा देकर) यह तो मैं पहिले ही । कछु न सुहात धाम धन गृह सुख मात पिता परिवार जानती थी कि तुम न कहोगी । बसति एक हिय मैं उनकी छबि नैनन वही निहार।।२। वि.- नहीं सखी मैं क्यों न कहूंगी पर तू क्या बैठत उठत सयन सोवत निसि चलत फिरत सब ठौर । उसका कारण अब तक नहीं जानती नैनन तें वह रूप रसीलो टरत न इक पल और ।।३।। सुलो.. जो जानती तो क्यों पूछती ? नैनन तें वह रूप रसीलो टरत न इक पल और ।।३।। वि.- हीरा मालिन जो उस दिन माला लाई थी हमरे तो तन मन धन प्यारे मन बच क्रम चित माहिं वह क्या तूने नहीं देखी थी? पैउन के मन की गति सजनी जानि परत कछु नाहिं।।४।। सुलो. .-हां देखी तो थी, तो उस से क्या? सुमिरन वही ध्यान उन को ही मुख मैं उनको नाम । वि.- और उस दिन छत्त पर से मैं जिसे वृक्ष दूजी और नाहिं गति मेरी बिनु पिय और न काम ।।५।। तले देखने गई थी उसे तू ने नहीं देखा था ? नैन दरसन बिनु नित तलफे श्रवन सुनन को कान । सुलो. .- हां सो सब जानती हूं। बात करन को मुख तलफै. गर मिलिबे को ये वि.- तो अब नहीं क्या जानती ? प्रान ।।६।। सुलो. .-तो फिर उस में इतना सोच विचार सुलो. - हां इन बातों को तो मैं समझती हैं पर क्यों चाहिये केवल एक बेर बड़ी रानी जी से कहने से कर क्या सकती हूं क्योंकि कोई उपाय नहीं दिखता । सब काम सिद्ध हो जायगा । हम तो तेरे दुख से दुखी और तेरे सुख से सुखी हैं, जो चपला- वाह २ क्या इसी बात का इतना सोच | किसी उपाय से यह सुख होय तो हम सब अपने शरीर विचार था, तो मैं अभी जाती हूं (जाना चाहती है) बेंच कर भी उसे कर सकती हैं, परन्तु यह ऐसी कठिन वि.-नहीं २ ऐसा काम कभी न करना, नहीं तो बात है कि इस का उपाय ही नहीं है। सब बात बिगड़ जायगी ।। चप.- इस में क्या सन्देह, आज दिन राजा के चप.- क्यों इस में दोष क्या है ? प्रताप से सब देश थर २ कापता है और द्वारों पर सुलो.- और फिर यह न होगा तो होगा क्या ? चौकीदार यमदत की भांति खड़े रहते हैं, तब फिर ऐसी वि. सखी मेरी प्रतिज्ञा ने सब बात बिगाड़ भयानक बात कैसे हो सकती है। रक्खी है! वि.- (लम्बी सांस लेकर) हाय सखी अब मैं चप.- क्यों? क्या करूंगी जो शीघ्र ही कोई उपाय न होगा तो प्राण वि.- मा से कह देने से फिर उन के संग विचार | कैसे बचेंगे यह प्रीत दइमारी बड़ी दुखद होती है करना पड़ेगा, और उस में जो मैं जीती तो भी अनुचित (गाती है) (राग बिहाग) है क्योंकि मैं अपना प्राण धन सब उन से हार चुकी हूं बावरी प्रीति करौ मति कोय । और फिर उन से विवाह भी कैसे होगा, और वह जीते तो | प्रीति किये कौने सुख पायो मोहि सुनाओ सोय ।।१।। इस बात का लोगों को निश्चय कैसे होगा कि गणसिन्धु / प्रीति कियो गोपिन माधव सो लोक लाज भय खोय । राजा के पुत्र यही हैं और निश्चय बिना तो विवाह भी | उनको छोड़ि गये मथुरा को बैठि रही सब राय ।।२।। प्रीति पतंग करत दीपक सों सुन्दरता कह जोय । नहीं हो सकता, इस से मेरा जी बिधे में पड़ा सो उलटो तेहि दाह करत है पच्छ नसावत दोय ।।३।। है-और जिस दिन से मैंने उन्हें देखा है उस दिन से अपने आपे में नहीं हूं क्योंकि उस मनमोहन रूप को | जानि बुझि के प्रीति करी हम कल मरजादा धोय । देखकर मैं कुल और लाज दोनों छोड़ चुकी हूं और उस अब तो प्रीतम रंग रंगी मैं होनी होय सो होय ।।४।। हीरा मालिन ने हम को वचन तो दिया है कि किसी विषय में जो २ उमंग उठते हैं वह कहने के बाहर हैं और सखियो ! तुम लोग भी तो स्त्री हो अपने ऐसा जी | भांति उसे एक बेर तुझ से मिला दूंगी पर देखू अब वह क्या उपाय करती है। सब का समझो । हाय, मुझे कोई उपाय नहीं दिखाता। (एक सुरंग का मुंह खुलता है और उस में से सुन्दर निकलता है) (गाती है) (राग सोरठा) (सब सखी घबड़ा कर एक दूसरी का मुंह देखती हैं और सम्री हम कहा करें कित जायं? विद्या लाज से मुंह नीचे कर लेती है। बिनु देखे वह मोहिनि मूरति नैना नाहिं अधाय ।।१।। चप.- अरे यह कौन है और कहां चला आता है ! 0** विद्यासुंदर २८९