पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३२५

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विद्यासुंदर यह भारतेन्दु की प्रथम नाट्य रचना है। बंगला से अनूदित है। इस समय भारतेन्दु बाबू की अवस्था अठारह वर्ष थी। इस नाटक के प्रथम संस्करण की कोई प्रति उपलब्ध नहीं है। इसका दूसरा संस्करण चन्द्रप्रभा प्रेस में सन् १८८३ में हुआ। जिसका उपक्रम चैत्र सम्वत् १९३९ (१८८२) में लिखा गया था। उपक्रम में भारतेन्दु स्वयं लिखते हैं कि प्रथम संस्करण पन्द्रह वर्ष पहले यानी सन् १८६७ में हुआ था। सन् १८८६का संस्करण भारत जीवन प्रेस का है। बंगला के अतिरिक्त संस्कृत में विद्यासुन्दर नाम का एक छोटा काव्य मिलता है। यह कब लिखा गया यह तो पता नहीं पर यह चौर कवि कृत कहा जाता है। सं. द्वितीय आवृत्ति का उपक्रम विद्यासुन्दर की कथा वंग देश में अति प्रसिद्ध है। कहते हैं कि चोर कवि जो संस्कृत में चौरपंचाशिका का कवि है यही सुन्दर है। कोई इस चौरपंचाशिका को वररुचि की बनाई मानते हैं। जो कुछ हो विद्यावती की आख्यायिका का मूल सूत्र वही चौरपंचाशिका है। प्रसिद्ध कवि भारतचन्द्र राय ने इस उपाख्यान को बंगभाषा में काव्य स्वरूप में निर्माण किया है और उसकी कविता ऐसी उत्तम है कि बंगदेश में आबाल वृद्ध बनिता सब उसको जानते हैं। महाराज यतीन्द्रमोहन ठाकुर ने उसी काव्य का अवलंबन करके जो विद्यासुन्दर नाटक बनाया था उसी की छाया लेकर आज पन्द्रह बरस हुए यह हिंदी भाषा में निर्मित हुआ है। विशुद्ध हिन्दी भाषा के नाटकों के इतिहास में यह चौथा नाटक है। निवाज का शकुन्तला या ब्रजवासीदास का प्रबोधचन्द्रोदय नाटक नहीं काव्य है इससे हिन्दी भाषा में नाटकों की गणना की जाये तो महाराज रघुराजसिंह का आनंदरघुनंदन और मेरे पिता को नहुष नाटक यही दो प्राचीन ग्रंथ भाषा में वास्तविक नाटककार मिलते हैं। यों नाम को तो देवमायाप्रपंच समयसार इत्यादि कई भाषा ग्रंथों के पीछे नाटक शब्द लगा दिया है। इनके पीछे शकुन्तला का अनुवाद राजा लश्मणसिंह ने किया है। यदि पूर्वोक्त दोनों ग्रंथों को ब्रजभाषामिश्र होने के कारण हिन्दीन मानो तो विद्यासुन्दर नाटक गुणों में अद्वितीयन होने पर भी द्वितीय है। पश्चिमोत्तर देश की मान्य गवर्नमेन्ट ने इसकी एक सौ पुस्तक लेकर इसका मान बढ़ाया है। पूर्व आवृत्ति का अत्यन्ताभाव ही इसकी पुनरावृत्ति का कारण है। यह दुसरी आवृत्ति उसी को समर्पित है जिससे इस ग्रंथ से त्रिपथगा घनिष्ठ संबंध है। प्रथम विद्या मानो उसकी द्वितीया संपत्ति है द्वितीय एक देशी कथा भाग और तृतीय हमारा संबंध है। काशी चैत्र १९३९ हरिचन्द्र Forth विद्या सुन्दर २८३ 21