पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२७०

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Wiane हिंदी की उन्नति पर व्याख्यान* रचना काल-सन् १८७७ अहो अहो मम प्रान प्रिय आर्य भ्रातृ-गन आज । कांचे पर ता सों बनत जो कछु सो रह जात । धन्य दिवस जो यह जुड़ो हिन्दी हेतु समाज ।। चिन्ह सदा तिमि आल सिसु शिक्षा नाहिं भुलात ।१८ तामें आदर अति दिये मोहि तुम निज जन जान। सो सिसु-शिक्षा मातु-बस जो करि पुनहि प्यार । जो बुलवायो मोहि इत दर्शन हित सन्मान ।२ खान-पान बेलन समय सकत सिखाय विचार ।१९ वदपि न मैं जानत कष्ट सब विधि सो अति दीन । | लाल पुत्र करि चूमि मुख विविध प्रकार खेलाइ । तदपि प्रात निव जानिकै सवन कृपा अति कीन ।३ | माता सब कछु पुत्र को सहहि सकत दिखाइ ।२० भारत में यह देस पनि वहाँ मिलत सब मात । सो माता हिंदी बिना कछु नहिं जानत और । निव भाषा दिन कट कसे हम कई आज लखात ।४ | तासों निज भाषा अहै, सबही की सिरमौर ।२१ निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल । पढ़ो शिखो कोउ लाख विध भाषा बहुत प्रकार । बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल ।५ पै जबही कछु सोचिहो निज भाषा अनुसार ।२२ पढ़े संस्कृत जतन करि पडित भे विख्यात । सूत सो तिय सो मीत सो भूत्यन सों दिन रात । पै निज भाषा ज्ञान बिन कहि न सकत एक बात १६ जो भाषा मधि कीजिये निज मन की बहु बात ।२३ पढ़े फारसी बहुत विष तोड़ भये खराब ता की उन्नति के किये सब विधि मिटत कलेस । पानी खटिया तर रहो पूत मरे बकि आप ७ जामै सहजहि देसको इन सब को उपदेश ।२४ अंग्रेजी पढ़ि के जदपि सब गुन होत प्रवीन । जदपि बाहर के जनन गुन सों देत रिझाय । पे । निज भाषा ज्ञान विन रहत हीन के हीन 10 पै निज घर के लोग कह सकत नाहि समझाय ॥२५ यह सब भाषा काम की जब तो बाहर बास। बाहर तो अति चतुर बनि कीनो जगत प्रबंध । घर भीतर नहिं कर सकत इन सों बुद्धि प्रकास ।९ पे घर को व्यवहार सब रहत अघ को अंध ।३६ नारि पुत्र नहिं समझहीं कछु इन भाषन मादि । के पहिने पतलून के भये मौलबी खास । तासों इन भाषन सो काम चलत कछु नाहि ।१० पै तिय सके रिझाय नहि जो गृहस्थ सुख पास ।२७ उन्नति पूरी है तबहि जब घर उन्नति होय । इनकी सो अति चतुरता तिनको नाहि सुद्धात । निव सरीर उन्नति किए रहत मूढ सब शोय ।११ लाही सो प्राचीन कषि कही भली यह बात ।२८ पिता विविध भाषा पढ़े पुत्र न जानत एक । खसम जो पूजे देहरा भूत-पूजनी जोय । तासों दोउन मध्य में रहत प्रेम अपिवेक ।१२| एकै चर में दो मता कुसल कहाँ से होय ।२९ अंग्रेजी निज नारि को कोउ न सकत पदाइ । तासो जब सब होहि घर विद्या-बुद्धि-निधान । नारि पढ़े बिन एक इकान न चलत शसाइ ।१३ होड़ सकत उन्नति तये और उपाय न आन ।३० गुरु सिखवत बहू भाति लो बपि बालकन जान । में माता-शिक्षा सरिस, होत तीन नहिं ज्ञान 1१४ निज भाषा उन्नति बिना कबहुँ न हये है सोच । लाख अनेक उपाय यों भले करो किन कोय ।३१ जब अति कोमल जिय रहत तव चालक तुतरात । इक भाषा, इक जीप इक मति सब घर के लोग। मूलत नहि सो बाल जो तबे सिखाई आत ।१५ तचे बनत हे सघन सो मिटत मूढ़ता सोग ।३२ भूमि जात बहु धात जो जोबन सोचत लोय । और एक अति लाभ यह यामै प्रगट लखात । पै मूलत नहि मालकन सीख्यो सुनो जो होय १६ निव भाषा में कीजिये जो विद्या की बात ।३३ जिमि ले काँची मृत्तिका सब कछु सकत बनाय । तेहि सुनि पात्र लाभ सब बात सुनु जो कोय । पेन पकाए पर चालत तामें कडू उपाय ।१७ यह गुन भाषा और मह कबई नाही कोय ।३४ हिंदी भाषा के परमाचार्य श्रीयुत वायू हरिश्चन्द्र का लेकचर, जिसे बाबू साहब ने जून मास (वेष्ठ स. १९३४) की हिंदीदिनी समा में पढ़ा था । (हिंदी प्रदीप ख. १स.१-२, काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा "हिंद भाषा" नाम से प्रकाशित । भारतेन्दु समग्र २२८