पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२३

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  • RI सखी यह नैना बहुत बुरे । तब सो भय पराए हरि सों जब सो जाई जुरे ।। मोहन के रस बस है डोलत तलफत तनिक दुरे । मेरी सीख प्रीत सब छाड़ी ऐसे ये निगुरे ।। जग खीझयों बरज्यों पै ए नहि हठ सों तनिक मुरे ।

'हरिश्चन्द्र देखत कमलन से विष के बुते छुरे ।। कहीं रसखानि जैसा ब्रजभूमि के प्रति आकर्षण है, मोह है, लगाव है । छन्द भले ही दूसरा हो पर भावव्यक्ति वैसी ही है: ब्रज की लता पता मोहि कीजै। गोपी पद पंकज पावन की रस जामैं सिर भीजै ।। आवत जातकुंज की गलियन रुप सुधा नित पीजै । श्री राधे-राधे मुख यह बर हरीश्चन्द्र को दीजै ।। कहीं एक समर्पित पुष्टिमार्गी की तरह -पोषणै तदनुग्रह" में विश्वास करते हुए भारतेन्दु भगवान की लीला में प्रवेश पाते हैं । वहां अहंकार उनसे छूट जाता है और रह जाती है दीनता । श्री बल्लभ बल्लभ कहौ, छोड़ उपाय अनेक । जानि आपनो राखि है, दीनबन्धु को टेक । साधन छाडि अनेक विधि, परिहु द्वारे आये । आपनो जानि निबाहि हैं, करिकै कोऊ उपाय । श्री जमुना जलपान करु, वसु वृन्दावन धाम । मुख में महाप्रसाद रखू, लै श्री वल्लभ नाम । वृजरज में लोटत रहा, छाड़ि सकल जंजाल । चरन राखि विश्वास दृढ भजु राधा गोपाल । कहीं धनानन्द के प्रेम की टीस और छटपटाहट भारतेन्दु की अपनी हुई दिखाई देती है। वियोगजन्य पीड़ा और तड़फती वेदना ऐसी जो सही नहीं जाती । प्रेमिका के दर्शन की लालसा मात्र स्वप्न रह जाती है। काले परे कोस चलि थक गये पाय सुख के कसाले परे, ताले परे नस के। रोय-रोय नैनन में हाले परे, जाले परे मदन के पाले परे प्राण पर-बस के । "हरिश्चन्द्र" अंगहू हवाले परे रोगन के सोगन के भाले परे तन बल खसके । पगन में छाले पर नाँधिबे को नाले परे, तऊ लाल लाले परे रावरे दरस के। इन दुखियान को न चैन सपनेहु मिल्यौ, तासों सदा व्याकुल विकल अकुलायेगी । प्यारे हरिश्चन्द्र जू की बीती जानि औध प्राण, चाहत चले पै ये तो संग ना समायगी। Sky इक्कीस