पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२२६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कबहुँ जगत के रसिक भगत सज्जन लखि तिन सों बोले। कालो हृदय देखि तिन को उचटत झटकत डोले । जिन कहँ मित्र खुहृद करि मानत राखत जिनकी आसा। तेऊ मुख भंजत तब छोड़त सबही सो विश्वासा । कबहुँ ब्रह्म बनि रहत आपुही जामैं दुख नहिं व्यापै । माया प्रबल तहाँ अभिमानहिं नासि जगत मत थापै । सोचत कबहुँ निकसि बन जानो पैं जब आपु बिलोकै । तृष्णा क्षुधा साथ तहहूँ लखि ताहू सों चित रोके । ब्रह्मा सों बढ़ि लै पिपीलिका लौं जग जीव सु जेते । कोऊ देत न अचल भरोसो निज स्वारथ के तेते । तृष्णा अमित सुखाए छिछिले छीलर सब जग माहीं । 'हरीचंद' बिनु कृष्ण बारि-निधि प्यास बुझत कहुँ नाहीं ।३० कवित्त ए री प्रान-प्यारी बिन देखे मुख तेरो मेरे जिय मैं बिरह घटा घहरि घहरि उठे। त्यौं ही 'हरिचद' सुधि झूलत न क्यों हूँ तेरो लांबो केस रेन-दिन छहरि छहरि उठे। गड़ि गड़ि उठत कटीले कुच-कोर तेरी सारी सो लहरदार लहरि लहरि उठे। सालि सालि जात आधे आधे नैन-बान तेरे बूंघट की फहरानि फहरि फहरि उठे ।३१ सवैया हमैं नीति सों काज नहीं कछु अपुनो धन आपु जुगाए रहो । हमरी कुल-कानि गई तो कहा तुम आपनी को तो छिपाये रहो । हमसों सब दरि रहो 'हरिचंद' न संग मैं मोहिं लगाए रहो । हम तो बिरहा मैं सदा ही दहे तुम आपुनो अंग बचाए रहो ।३२ पद जयति जन्हु-तनया सकल लोक की पावनी । सकल अघ-ओघ हर-नाम उच्चार मैं पतित-जन-उदरनि दुक्ख-विद्रावनी । कलि-काल कठिन गज गर्व खर्वित-करन सिंहिनी गिरि गुहागत नाव-श्रावनी । शिव-जटा-बूट-जालाधिकृत-बासिनी विधि-कमंडलु बिमल रमनि मन-भावनी । चित्रगुप्तादि के पत्र-गत कभ बिधि उलटि निज भक्त आनंद सरसावनी दास 'हरिचंद' भागीरथी त्रिपथगा जयति गंगे कृष्ण-चरन गुन-गावनी ।३३ श्री गंगे पतित जानि मोहिं तारौ । जो जस अब लौं मिल्यौ तुम्हें नहिं सो जग में बिस्तारौ। जेते तारे हीन छीन तुम अब लौं पतित अपारे । ते मेरे लेखे तृन ऐसे कहा गरीब बिचारे । पाप अनेक प्रकार करन की बिधि कोऊ कहँ जाने । हों तो बदि बदि करौं अनेकन जेहि जम-चित्रहु मानै । हम कहँ जौ पै तारि लेहु जग-तारनि नाम कहाई । 'हरीचंद' तो जस जग मानै नातस बादि बड़ाई ।३४ जै जै बिष्णु-पदी श्री गंगे। पतित-उधारनि सब जग-तारनि नव उज्ज्वल अंगे। शिव-सिर-मालति-माल सरिस वर तरल तर तरंगे । 'हरीचंद' जन-उधरनि देवी पाप-भोग-भगे ।३५ पतित-उधारनी मैं सुनी । इक बाजी खेलौ हमहूँ सों देखें कैसी गुनी । कबहुँ न पतित मिले जग गाढ़े ताही सों गायो मुनी । 'हरीचंद' को जौ तुम तारौ तौ तारिनि सुर-धुनी ।३६ गंगा तुमरी साँच बड़ाई। एक सगर-सुत-हित जग आई तारौ नर-समुदाई । एक चातक निज तृषा बुझावन जाचत घन अकुलाई। सो सरवर नद नदी बारिनिधि पूरत सब झर लाई । नाम लेत जल पिअत एक तुम तारत कुल अकुलाई । 'हरीचंद' याही तें तो सिव राखी सीस चढ़ाई ।३७ आबु हरि-चंदन हरि-तन सोहै। तरु तमाल पै साँझ-धूप सम देखत तिह मन मौहै । ता पैं फूल-सिंगार सुहायो बरनि सकै सो को है । 'हरीचंद' बड़ भाग राधिका अनुदिन पिय-मुख जोहै ।३८ आजु जल बिहरत पीतम-प्यारी । गल भुज दिये करिनि-गज से दोउ अवगाहत सुभ बारी । सखी खरी चहुँ ओर चारु सब लै ग्रीषम उपचारी । चंदन सोधो फूल-माल बहु झीने बसन सँवारी । कोउ गावत कोउ तार बजावत कोउ करत मनुहारी । कोठ कर सोंजल-जंत्र चलावत 'हरीचंद' बलिहारी।३९ मिटत न हौस हाय या मन की । होत एक ते लाख लाख नित तृष्णा बुझत न तन की। दैव-कृपा सों जौ तमो-गुनी बृत्ति दूर हवै जाई । तो रजोगुनी इच्छा बाढ़त लाखन जिय में आई । ताहू के मिटे सतोगुन संचय अपुनो लोभ न छोड़े भारतेन्दु समग्र १८६