पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२२४

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धेरें सखी चारु चारों दिसि नव मलार की गावनि । 'हरीचंद' राधा प्यारी देखि रीझे गिरिधारी "हरीचंद' चित तें न टरति है सो सोमा सुख-पावनि।१४ आनंद सों उमगे समात नहिं तन मैं १८० धनि वे दृग जिन हरि अवलोके । गंगा पतितन को आधार । रथ चढ़ि के डोलत ब्रज-बीथिन यह कलि-काल कठन सागर सों तुमहिं लगावत पार। ब्रज-तिय द्वार द्वार गति रोके । दरस-परस जल-पान किए तें तारे लोक हजार । इक कर रास रासपति लीने हरि-चरनारबिंद-मकरंदी सोहत सुंदर धार । झूमत चलत तुरंग नचावत । अवगाहत नर-देव-सिद्ध-मुनि कर अस्तुति बहु बार । दूजे कर साँटी लै दृग की 'हरीचंद' जन-तारनि देवी गावत निगम पुकार ।१९ साँटी प्रज-तिय-चित्त लगावत । जयति कृष्ण-पद-पद्म-मकरंद रजित इत उत चितवत चलत चख नीर नृप भगीरथ बिमल जस-पताके । हसत हसावत गावत डोलें। ब्रह्म-द्रवभूत आनंद मंदाकिनी छकत रूप लखि निरखनहारे अलकनंदे सुकृति कृति-विपाके । काहू सों हँसि के मृदु बोलें। शिव-जटा-जूट-गहवर-सघन-वन-मृगी संग भीर आभीर-जनन की विधि-कमंडलु-दलित-नीर-रूपे 1 मुरछल चंवर डुलावत धावै । कपिल-हुंकार भस्मीभूत निरयगत 'हरीचंद' तें धन धन जग में स्पर्श-तारित सगर-तारित-तनुज भूपे । जे यह सोभा निरखि सिराथें ।१५ जन्हुतनया हिमालय-शिखर-निकर कछु रथ हाँकनहू मैं भाँति । बर भेद भजित इंद्र हृस्ति गर्वे । यह कछु औरहि चलनि-चलावनि और रथ की कांति। असह धारा-प्रवह वारि-निधि मानहृत कहूँ ठिठकि रथ रोकि घरकि लौं ठाढ़े रहत मुरारि । मिलित शतधा रचित बेग खव्वें । कहुँ दौरावत अतिहि तेज गति कहुँ काहू सो रारि । विविध मंदिर गलित कुसुम-तुलसी-निचय काहु को अंग परसि रथ चालनि काहु लेनि दौराय । भ्रमर-चित्रित नवल विमल धारे । चाबुक चमकि तनक काह तन मारनि देनि छुआय । सिद्ध सीमंतिनी सुकुच-कुंकुम-मिलत काहू के घर की फेरी दै घूमनि करि रथ मंद । हिलित रंजित सुंगधित अपारे । बार बार निकसनि वाही मग मैं जानी 'हरीचंद' ।१६ लोल कल्लोल लहरी ललित वलित बल वह धुज की फहरानि न भूलति । एक संगत दितिय तर तरंगे। उलटि उलटि के मो दिस चितवनि मरति झर झर झिल्लि सरस झकार रथ हाँकनि हरि की जिय सूलति । वर वायु गत रव बीन-मान मंगे। लै गए सब सुख साथहि मोहन मकर-कच्छप-नक-संकुलित जीवजय अब तो मदन सदा हिय हुलत । शीत पानीय तृष्णादि नाशे । सो सुख सुमिरि सुमिरि कै सजनी कलित कूजित सुकारंड-कलरव नाद अजहूँ जिय रस-बेली फूलत । लै आओ कोउ मो ढिग हरि को कोकनद कुमुद कल्हार काशे । बिरह-आगि अब तन उनमूलत । निज महिम बल प्रबल अर्कसुत नर्क-भय 'हरीचंद' पिय-रंग बावरी ग्वालिनि प्रेम-डोर गहि झूलत ।१७ दूर कृत पतित-जन कृत पवित्रे । पान मज्जन मरण स्मरण दर्शन मात्र आजु दोउ बैठे मिलि बूंदाबन नव निखिल अघ-राशि नाशन चरित्रे । सीतल बयार सेवै मौद भरे मन में । मुक्ति-पथ-सोपान विष्णु-सायुज्य-प्रद उड़त अंचल चल चंचल दुकूल कल स्वेद फूल की सुगंध छाई उपवन मैं । परम उज्ज्वल श्वेत नीर जाते । रस भरे बातें करै हँसि अंग भरे जयति यमुना-मिलित ललित गंगे सदा दास 'हरिचंद' जन पक्षपाते ।२०॥ बीरी खात जात सरसात सखियन मैं । भारतेन्दु समग्र १८४