पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१८९

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f --AV घिरह से व्याकुल दोउ मिलि ले फूले हो कूज हिंडोरे री सखी। चमकती है बिजली है छाई घटा । उबदाबन चहुँ ओर सो हो फूल्यो शोभा देत हो । बहाने से बिजली के छेड़ा मुझे। जमुना नीर तीर पर सुंदर झलमल लहरा लेत हो । नया राग परदे में लाई पा । दोहा मुझे तेरी जुल्फों का ध्यान आ गया । बिजुरी चमके जोर से नभ छाए धनधार हो । जो देखी सियह सिर पै डाई घटा जमी है हरीनद' गजलें पढ़ो । मोर सोर चहुं ओर कर दादुर बन कीनी रोर हो । 'रसा' देखो कैसी है छाई घटा ७ सखी भुला प्रेम सों हो पहिरे रंग रंग चीर हो । भूलै प्यारी राधिका सँग पीतम श्याम सरीर हो । मलार सोभा नहि कहि जात हो तह बढ्यो सधी आनंद हो । हरि बिनु बरसत आयो पानी । लखि गलबाही दोक को दीने बलिहारी 'हरीचद' हो। चपला चमकि चमकि डरवायत मोहि अकेली जानी । दोड मिति झूले फूल हो कुज हिंडोरे री सखी ।५ रात अंधेरी हाच न सूझे में विरहिनी बिलखानी । लावनी 'हरीचद्र' पिय-विनु बरसा में हाथ मीजि पछतानी। बीत चली सब रात न आए अब तक दिल-जानी । ऊधो हरि जू सों कहियो जाइ हो जाइ । खड़ी अकेली राह देखती बरस रहा पानी । बिनु तुव प्रान परे संकट में घट अंधेरी छाय रही भारी सों निकसत आइ दो । सूझत कई न पंथ सोच कर मन मन में नारी। बढ़त विरह दुख छिन छिन मोहन कोई समझावनवारी। रोअत पछरा खाइ हो खाइ। चौकि चौकि के उझकि झरोखा झांक रही प्यारी । | 'हरीचन्द्र' व्याकुल बज देखत अकुलानी बेगहि आओ धाइ हो धाइ । खड़ी अकेली राह देखती बरस रहा पानी । | पिय-भिनु सूनी सेजिया साँपिन सी सूझै पंच न कहीं हाथ से हाथ न दिखलाता । मोरा जियरा डसि डसि लेत । रैन डरारी कारी भारी एक रंग धरती अकास का कहा नहीं जाता। व्याकुल पिय -बिनु चेत । बूंद बजे टपटप मारग कोई नहिं जाता आता । तड़पत करवट लेत अकेली सोए घर पर सब पट तानी । खड़ी अकेली। धीर कोऊ नहि देत । सन सन करके रात सनकती झीगुर झनकार । पिय 'हरिचन्द्र' बिना को गरवां कभी कभी दादुर रट कर जिय व्याकुल कर डार । लगि के सांप खंडहर उनकार । ठुमरी हिंडोले की नदी छलक मारे। खचकि मचकि दोउ झलि रहे नखडी अकेली । उही पवन झकोरे आँचल उड़ उड़ फहरावै । नव-नारी सब आई मिलि भूलन को विरहिन इत सो उत डोले कोइ नाही जो समुझाये । पहिरे चुनरी रंग बोरे में। पिय विन को जो गर लाये। बरसत घन बूंद पर छतियाँ 'हरीचन्द्र' बिन बरसा में को कसक मिटा जाये। बडे सीतल पवन मकोरे में। कहाँ बिलमै को मनमानी । बड़ी अकेली016 | 'हरीचंद' कहा छवि बरनि सके सुख बादयो प्रम-इलोरे में ।११ गजल न आया वो विलवर श्री आई घटा । खेमटा तो हसरत की बस दिशा पैमाई घटा । कहनवा मानो हो विश-जानी। चढ़ा शाम को वाम पर गर वो माह । निसि अंधियारी करी विचरी चमके शफ़क का नया रंग लाई घटा । रुम झुम बरसत पानी जुल्फ तेरी ये बिजली नहीं । वजोर ठाडी अरज करत हो किसी का बोल बोल नहीं सुनाता । निबाहे हेत ।१० गिरे करारे टूट टूट पिया बिन सब ही जमुना-तट सुरंग हिंडोरे में ' दुखशनी। वर्षा विनोद ४