पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१८२

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he दृढ़ विस्वास अचा निकमत हरु कबहूँ न डिगत डिगाये। कबईक ले स्नाना बजावति मीठी बतियन बोले । -* DES वामन बादशी की बधाई, सारंग सेवक-स्वामि अनन्य भये मिति गति नहि परत लवाई इनमें को बढ़ि को घटि यह बति कीनो सो कौन करे। किमि हरीचंद' कहि गाई । सरबस हरिहि समर्षि प्रेम सो जगत-सीख हित को निदरे। भोजन के पद, राग यथा-चि द्विज-सनमान वान वच-पालन भोजन करत किशोर-किशोरी । दृढ़ व्रत को हठि नाहि ट। कुंच महल में परि गै परदा सखि ठाढ़ी चहुँ ओरी । जात्म-समर्पन दास्य माष निज ललिता ले आई भरि चारी ताती विनरी कोरी । करि आग्रह को जीव घरे। लामें घत झारयो बहुते करि रुचि बाटी नहि चोरी । हरि उस स्वामि प्रगटि दिखरायो हंसत परसपर बात खवायत बंधे प्रेम की डोरी । जामें संका सकल परे। 'हरीचंद' बलि बलि जोरी पर बरनिसकै सो कोरी || प्रम-प्रतिकून्त गुरुहि निज खाइयो संक्रान्ति के पद, राग यथा-उचि यह अनन्य मत को विचरे । राजहु गये साप गुरु दीनों मागन पाइये जु लालन बेस-संधि-संक्रोन । आप बंधे पे कौन डरे। तिय तिथि पाइ व्यापि गई तन में चली किन राधा-रौन । 'हरीचंद दृढ़ता की दुन्दुभि | बाल-तरुनई-मिलन पुन्य-छन अति थोड़े ही घर । जग बनाइ इमि कौन तरे ।८२ ललिता बनि ज्योतिषी बतायत समय न पैहो फेर । कुज-कुटी तीरथ में चलि के करहु स्वेद-अस्नान । बेदन में निज महिमा यापन 'हरीनंद' अलि याचक को मिलि देहु देऊ सुखदान । गये त्रिविक्रम ज सुरारी । सब सग मापकता दिखराई मकर संक्रोन सखी सवन प्रत्यक्ष दीन-हितकारी । मकर कुंडल सों मकर बिलोननि क्यों न मिलत तूधाई । ओरह एक भेद है यामें जो मकरकेतु को भय नहि मानत घर में रही शिपाई । प्रगट्यो या भेष खरारी। वे नुष विनु मे मकर बिना जल व्याकुल मुकरन पाई । वामनई वपु सब सो ऊंचे | मान मान तजु मान धरम कर कर धरि लै गर लाई । त्रिभुवन-वयक जदपि भिखारी। 'हरीचंद तजु मकर राधिके रहु त्यौहार मनाई 1८८ जग-वता विराट षषु की फिरि स्फुट, यथा-वाचि कहो महिम को कहै विचारी । मन तुहि कौन जतन घस कोचे। 'हरीचंद छोटे-गन, में जब काइ सो जिय भरत न तेरो कहाँ-कहाँ चित दीचे । सब भी सो बढ़ि बनशरी ।८३ | जान कर्म कुल नेम धर्म सों होत न तोहि संतोष । बलिहि छलन गये आपु छलाये। घर घर भटकत होलत धायो किये अनेक भरोस । मांगत दान दियो अपने को कामादिक नित काम तिहारे सो नहिं वर्णोई माने । पाधि एक छन जनम बंधाये । सहस सहस नित करत मनोरथ ताहि कौन विधि जाने। प्रनतारतिहर भगत-मछल प्रभु कछु पो नहि परत पतन नित तौह चाह बढ़ावे । सांच नाम निज करि दिखराये । 'हरीचद सुर-काव करन गये को पिय-पद में चित लाये ।८१ बाल-लीला, बिलाबल मनिमय आँगन प्यारो खेले । मन गहि अंगुरी मुख मेले । | बड़मागिनि कीरति सी मैया मोहन लागी डोले । अष्ट सिद्ध नव निधि जेहि वासी सों ब्रज सिसु-वपुधारी, । सुखदाई। "हरीचंद' क्यों छोडिन सब असुरराज चिर करि हरि आये 1८४ बलि को मति पर यति बलिहारी । सिखयो जहि समर्पन चिन निज गुरु की आपसु वरी। | हरि सो बदि सुपात्र जग नाडी बत्ति सों बदि के दाता । भूमि-दान सम दान नहीं यह थापी तीनहुँ पाता । किलकि किलकि हुलसत मनहीं ग्राही हैं पहरू करि हरि को रहत द्वार पैठाये । भारतेन्दु समग्र १४२