पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१७०

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0 होली बन्दर सभा प्रान-प्यारे नींद न ऐहै रैन । अति ब्याकुल करवट बदलौंगी हवेहै जिय बेचैन । (होली जबानी सुतुर्मुर्ग परी के) प्रान-प्यारे करि करि तुम्हरी याद । इत उत नेह लगाइ भये पिय तुम हरजाई । चौकि चौकि चहुँ दिसि चितओगी सुनै न कोउ फरियाद । जूठी पातर चाटत घूमत घर घर पूँछ डुलाई । प्रान-प्यारे दुख सुनिहे नहिं कोय । सौत भई अब सगी तुम्हारी हम तो भई हैं पराई । जग अपने स्वारथ को लोभी बादन मरिहौं रोय । पड़ी टुकड़े पर आई । प्रान-प्यारे सुनतहि आरत बैन । मिल जा तू प्यारे क्यों नाहक फिरत मनो बौराई । उठि धाओ मति बिलम लगाओ सुनो हो कमलदल नैन । बिनती करत उस्ताद खयानत गलियन गलियन धाई । प्रान-प्यारे सब छोड्यौ जा काज । राम सब लोग जगाई ।१६ सोउ छोड़ि जाइ तौ कैसे जीवें फिर ब्रजराज । पिय मूरख इत आइ देहु मोहिं बोल सुनाई। प्रान-प्यारे मति कहुँ अनते जाहु । वह दिन भूल गये जु घाट पर तुमने दही गिराई । मिलि के जिय भरि लेन देहु मोहिं अपनो जीवन-लाहु । पोंछ उठाय रही पछताय न बोली हम सकुचाई । प्रान-प्यारे इनको कौन प्रमान । तुम्हें कछु लाज न आई । ये तो तुम बिनु गौन करन को रहत तयारहि प्रान दुख धोवन अरू रोग-हरन तुम आप-सरूप कहाई । प्रान-प्यारे पल की ओट न जाव । हम तो करि संतोष हैं बैठी बिरहा-बोझ उठाई। बिना तुम्हारे काहि देखि अँखियाँ हमें बताव । करो सीतल हिय आई। प्रान-प्यारे साथिन लेहु बुलाय । आसन सो बसंत में गावत हम तो मलार सदाई । गाओ मेरे नामहि ले ले डफ अरु बेनु बजाय । भई उस्ताद न घाट न घर की खरी बात यह गाई । प्रान-प्यारे आइ भरी मोहिं अंक । रही आखिर मुंह बाई ७० यह तो मास अहै फागुन को यामै काकी संक । प्रान-प्यारे देहु अधर रस दान । होली मुख चूमहु किन बार बार दे अपने मुख को पान । प्रान-प्यारे कब कब होरी होय । कुंजबिहारी हरि सँग खेलत कुंज-विहारिनि राधा । तासो सक छोड़ि के बिहरौ दै गल मैं भुज दोय । आनंद भरी सखी सँग लीने मेटि बिरह की बाधा । प्रान-प्यारे रही सदा रस एक । अबिर गुलाल मेलि उमगावत रसमय सिंधु अगाधा । दूर करौ या फागुन मैं सब कुल अरु बेद-बिबेक । चूंघट में झुकि नूमि अंक भरि भेटति सब जिय साधा । प्रान-प्यारे थिर करि थापो प्रेम । कूजति कल मुरली मृदंग सँग बाजत धुम किट ता धा । दूर करौ जग के सबै यह ज्ञान-करम-कुल-नेम । वृदाबन-सोभा-सुख निरखत सुरपुर लागत आधा । प्रान-प्यारे सदा बसौ ब्रज देस । मच्यौ खेल बढि रंग परस्पर इत गोपी उत काँधा । जमुना निरमल जल बहो अरु दुख को होउ न लेस । 'हरीचंद' राधा-माधव-कृत जगल खेल अवराधा ७१ प्रान-प्यारे फलनि फलौ गिरिराज । लही अखंड सोहाग सबै ब्रज-बधू पिया के काज । तुम भौरा मधु के लोभी रस चाखत इत डोलौ । प्रान-प्यारे जाइ पछारौ कंस । कलिन कलिन पर माते माते मधुर मधुरे बोलौ । फेरी सब थल अपुन दुहाई करि दुष्टन को धंस । कहुँ गुंजरत कहूँ रस चाखत कहूँ नाचत मद-माते । प्रान-प्यारे दिन दिन रही बसंत । बिलमि रहत कहुँ कलियन फूलन रस लालच रस-राते । यही खेल ब्रज मैं रही हो सब बिधि सुखद समन्त । कहुँ मधु पियत अंक कहुँ लागत करत फिरत कहुँ फेरा । कहुँ कलियन बस परि दल में मुंदि रजनी करत बसेरा । प्रान-प्यारे बाढ़ी अबिचल प्रीति तुमरो का परमान लाडिले सबै बात मन-मानी । नेह-निसान सदा बजै जग चलो प्रेम की रीति । तुम सों प्रीति करे सो बावरि 'हरीचंद' हम जानी ।७२ प्रान-प्यारे यह बिनती सुनि लेहु । शिवरात्रि का पद 'हरीचंद' की बाँह पकरि दृढ़ पाछे छोड़ि न देहु ।६८ आजु शिव पूजहु हे बनमाली । 1 भारतेन्दु समग्र १३०