पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१६६

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प्रियाबिंब प्रतिबिंबित पुरिन प्रिया-रूप के ऐना । उर्भाग उगि जेहि श्याम मनोहर बार बार उर लावै । मान तजत कोउ परी कराहत कोउ अति व्याकुल भारी । निज जन अभय करन को दोऊ करन मेंहदी राजे । चली निकट आवत कोउधाई जित तित इनकी मारी । कल पल तामै मनु प्रवाल को पल्लव सोभा साजै । कारी झपकारी अनियारी बरूनी सघन सुहाई । मुंदरी छल्ले बाँक आरसी कंकन पहुंची सोहैं । चुभत नोक जाकी नित मम उर रस छाजन सी छाई । कड़े पड़े हथफूल अनूपम देखत पिय मन मोहैं। केसर आड़ रेख पर सोभित लाल तिलक छबि भेखा । इन हाथन ही हाथन-हाथन पिय को मन ले लीनो । मान महावर के जुग पद की सोभित मनु जुग रेखा । निज जन को नित भक्ति-दान बिनही प्रयास इन दीनो । ललित लटपटी लाल पाग बिच अलक अधिक छबि देई। इनहीं पै धरि हाथ पिया डोलत निरतत मद-माते । मनु अनुराग सिंगार लोट रहे निरखत जिय हरि लेई । धाय मिलत आगे पिय को ये याही तें रंग-राते । चिक्कन चिलकदार चुनवारी कारी सोधे भोनी । पीठि परम सोभित चुटिला सों दीठि टरत नहिं टारी । नव घरवाली अलकालि लटकत तिय-मन छीनी । मानस मैं पिय प्रानन को जो एकहि राखनवारी । पाग पेंच पर ललित हीर सिरपंच भल्यौ रंग दमकै । मुख-सोभा कापै कहि आवै जहँ बानी मति हारी । गरब भयो छबि छीन जगत की ओप-चोप करि चमकै । पिया-प्रान अवलंब एक सब उपमहि दीजै बारी । तापर मोर-पखौआ सुंदर हलत अतिहि छबि पाई। पिय के जीवन-मूरि अधर दोउ कोमल पतरे सोभै । जगत जीति सिंगार-सिखर पर धुजा मनहुँ फहराई । पिय की रसना सजल करत लखि अमृत-स्वाद के लोभै । सहज तियागन को मन लोमा लखि नख-सिख की सोभा । ठोड़ी नासा बेसर के बिच छोटो सो मुख राजै । गोभा उठत प्रेम के जिय में देत मदन मन चोभा । अति भोरो जित रंग पानन दंतालि मिलि छाजै । कोमल तासु गंध सोभा प्रति अंगन सरस सँवारी । जुगल कपोलन झलकत लखियत करनफूल परछाहीं । मन नीलनि अतर मेलि के पुतरी साँचे ढारी । रूप-सरोवर चलित कमल मनु कबिजन कहत लजाहीं । तैसिहि श्रीबृषभानु-नंदिनी रंग-भरी सँग राजै । प्रतिबिंबित ताटक नगन मैं जुगल कपोल सुहाए । रूपर्वता जुर्वात-जूथ सत जा पद-नख लखि लाजै । मनु दै आरसि मध्य चंद्र प्रतिबिंबन बढ़त लखाए । कैहि अधिकार कहन सोभा को को पुनि सुनिबे लायक । तनिक तरकुली कानन सोहत केस-पास दुरि आए। बिनु ब्रजनाथ सदा जो तिनके अंतरंग पद-पायक । पास प्रगट परिवेष किनारिन मिलिकै अति छबि छाए । हरि-अनुराग प्रर्गाट पद-तल जुग अरुन लखत मन मोहैं । करन पिया-सुख-करन मनोहर सोभित परम लखाहीं । पिय हिय अधर नैन लार्गान की जासु बानि नित जोहैं । पीतम-बचन मुरलिका धुनि-सुनि प्रमुदित रहहिं सदाहीं पद-नख दिव्य फाटक से सुंदर कवि पै नहिं कहि जाही। नैन सकल रस-ऐन ध्यान के द्वार छके रंग भारी । मानस मैं हार होत रुद्र-बपु लाह जिनकी परछाहीं । पुरिन के मिस सदा बिराजत जिनमै श्याम बिहारी । मेंहदी सुरंग महावर आभा मिलिकै अति दुति दमकै । सुंदरता श्यामता बड़ाई चंचलता अरुनाई। प्रिया-अनय पर प्रीतम की अनुराग-मेंड़ मनु चमके । लाज सहित ये सिमिटि-सिमिटि सब इनहीं मैं मनु आई। अनवट बिछिया पग पातन सो सोभित अति पद-पीठी । 'सहजहि कजरा फैलि रहयौ लखतहि पिय-मन ललचाई। मनहूँ कमल पर कलित ओस-कन चंद्र चंद्रिका दीठी । अति भोरी चमकति सी पिय के मन बहु भाई । पायजेब गूजरी छड़े दोउ पग मैं पड़े सुहाए । पलक पिया छबि ओट छबीली दया भरी अनियारी । पिय के उचल बिबिध मनोरथ मनु तिय-पद लपटाए । घनसारी कारी बरुनी राजत प्यारी झपकारी । चरनन की छवि किमि भाखें ये जग के सब कवि छोटे । भौह जुगल छबि भरी धनुष सी किमि कबि पै कहि आवै। बारंबार प्रिया सोए पर जे हरि आप पलोटे । मानहुँ मैं जिनपे कबहूँ नहिं कुटिलपनो दरसावै । मानस में इनकी परछाहीं जब प्रगटें रंग भीने । रस सोहाग की आलबाल सों भाल ललित छबि छायो । पग-पेंच चंद्रिकन श्याम घन इंद्र-धनुष छबि छीने । तनिक बेंदुली सह जापै अति सेंदुर-बिंदु सुहायो । बिनु श्रीहरि कै सखि समाज के जा पद-पंकज-धूरी । केस सुदेस चमक चिकनारे कारे अति सटकारे । नहिं पाई शिव-अज अजहूँ लौं जद्यपि करत मजूरी । खुले बधे सबही बिधि सोहत सघन सुपूंघरवारे । सारी नील लपटि रही कटि लो रंग अनुरूप सोहाई । सारी मुख परिबेष किनारी मैं सुंदर मुख दमकै । मनु हरि आप बसंत-मिस-निस-दिन रहत अंग लपटाई। मंडल किरिनावलि तारावलि मैं ससि मानहुँ चमकै । अंचल हार माल मोतिन सों हिय अति सोभा पावै । सोभा सुंदरता सुबास कोमलता ललित लुनाई। भारतेन्दु समग्र १२६