पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१६

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लिए हैं । कच्चा माल इंग्लैंड जाने लगा । देश के उद्योग और शिल्प को नष्ट करने का षड़यंत्र आरम्भ हुआ । भारत को महज कृषि पर निर्भर रहने की विवशता के हाथों सौंप दिया गया जब कि १८४० में ही माटगोमरी मार्टिन संसदीय जांच समिति की रिपोर्ट इस खतरे की चेतावनी दे गयी थी - "मैं यह नहीं मानता कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत जितना कृषि प्रधान देश है, उतना उद्योग प्रधान भी है, और जो उसे कृषि प्रधान देश की स्थिति तक लाना चाहते हैं, वे सभ्यता के पैमाने पर उसका स्थान नीचे लाने की कोशिश करते हैं।" यह चेतावनी आजतक हमें झकझोरती है । हम आज तक अपने को कृषि प्रधान मानते है । आखिर क्या हुआ कि हमारी मान्यता में इतना परिवर्तन हो गया । . . . हमें मात्र कृषिकर्म पर निर्भर रहने के लिए छोड़ दिया गया । आकाशी कृपा पर जीवित रहने वाली खेती हमारा साथ न दे सकी । परिणामत: अकाल पर अकाल पड़े। महामारी के हम शिकार हुए। ___मौटे तौर पर कहा जाय तो १९वीं सदी के अन्तिम तीस वर्षों में अकेले खाद्यान्नों की जितनी कमी हुई, वह सौ वर्ष पहले की तुलना में चार गुना अधिक और चार गुना ज्यादा व्यापक थी।"-डब्लू. डिगवी-प्रासपरस बिट्रिश इंडिया १९०१ । डब्लू. एस. लिली ने अपनी पुस्तक "इंडिया ऐंड इट्स प्राबलम्स" में अकाल से होने वाली मौतों की संख्या -सन् १८५०-७५ के बीच ५० लाख तथा १८७५-१९०० के बीच १.५० करोड़ बतायी। मार्टिन संसदीय आयोग की रिपोर्ट के ४० वर्ष के भीतर ही यह परिवर्तन हो गया । सन १८८० में प्रकाशित अकाल आयोग की रिपोर्ट के निष्कर्ष के सम्बन्ध में रजनी पामदत्त ने "इंडिया टुडे" में लिखा। - "१८८० में प्रकाशित आयोग की रिपोर्ट का निष्कर्ष यह था कि अकालों के विनाशकारी परिणामों का मुख्य कारण और राहत पहुंचाने के काम में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि यहां की विशाल जनता प्रत्यक्षरूप से कृर्षि पर निर्भर है और कोई ऐसा उद्योग नहीं है, जिसके सहारे आबादी का उल्लेखनीय हिस्सा काम चला सके।" एक ओर देश दुर्भिक्ष और महामारी से जूझ रहा था और दूसरी ओर सरकार की विदेश नीति और भाज्यवादी दृष्टिकोण ने हमें और आर्थिक संकट में डाल दिया । बिट्रिश राजदूत के अपमान के कारण का सबक सिखाया गया । उसकी चाय बगान लायक भूमि ले ली गयी । वर्मा के भी कुछ अंश त में मिला लिया गया फिर भी वर्मा ने व्यापार की सुविधा नहीं दी, जबकि वर्मा,फ्रांस जर्मनी ता से व्यापार के सम्बंध में बातें आरम्भ कर चुका था । इस स्थिति का जायजा लेते हुए लार्ड डफरिन ने भारत सचिव को लिखा कि फ्रांसीसियों से बर्मियों की बात बने इसके पहले ही मैं बर्मा को नसकोच न करूंगा। उधर रूसी भालू ने पंख फटकने का बहाना लेकर अफगानिस्तान से हथियाने में संकोच न करूंगा । उधर भी लडाई मोल ले ली। तर अकाल और महामारी । बाहर-युद्ध । इस सबका खर्च भारत पर ही थोपा गया । "... कोई आश्चर्य नहीं कि शाही प्रशासन के शुरू में १३ वर्षों के दौरान भारतीय राजस्व में ३ करोड ३० लाख पौड से ५ करोड २० लाख पौंड प्रतिवर्ष का वृद्धि हुई और सन् १८६६ से १८७० तक घाटे के रूप में एक करोड़ १५ चौदह