पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१२४

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ताको फल यो उलटो दीनो भलो निबाह निभायो । ऐसी नहि आसा ही तुम सों जो तुम करि दिखरायो । नेम धरम ब्रत जप तप सबही जाके मिलन अराधो । हरीचंद' जेहि मीत कयौ सोइ जो कछ करौं सबै इनके हित इन तजि और न साधों निठुर बैरि बनि आयो ।२१ ॥ 'हरीचंद' मेरे यह सरबस भजौं कोटि तजि बाधो ।२८ जिनके देव गुबर-धन-धारी ते औरहि क्यौं मानै हो । । निरभय सदा रहत इनके बल जगतहि तृन करि जानै हो । हौं जमुना जलन भरन जात ही मारग माहिं मिले री कान्ह । देवी देव नाग नर मुनि बहु तिनहिं नाहिं उर आने हो । 'हरीचंद' गरजत निधरक नित करि मुठ-भेर अंक बरबस भरि रोक्यौ मोहि अंचल तान । कृष्ण कृष्ण बल साने हो ।२२ भौह नचाई प्रेम चितवन लखि हमारे ब्रज के सरबस माधो। हँसि मुसुकाइ नैन रह्यौ जोरि । किन व्रत जोग नेम जप संजम बृथा गोरि तन साधो । घट गिराइ करि और अचगरी अष्ट-सिद्धि नव-निधि को सब फल यहै न और अराधौ। दूर खरो भयो अंचर छोरि । 'हरीचंद' इनहीं के पद-जुग-पंकज मन-अलि बाँधो।२३ | कहा कहौं कछु कहि नहिं आवत करिके हिये काम की चोट । पिय तोहिं राखौगी हिय मैं छिपाय । मन लै तन लै नैन-चैन लै प्रानहुँ देखन न देहों काहु पियारे रहौंगी कंठ निज लाय । लै भयो अँखियन ओट । पल की ओट होन नहिं देहौं लूटौंगी सुख-समुदाय । कहा करौं कित जाऊँ सखी री 'हरीचंद' निधरक पीओंगी अधरामृतहि अघाय ।२४ वा बिन मो कह कछु न सुहाय । हियो भयो आवत छिनही छिन तुम सम कौन गरीब-नेवाज । हाय कहा करौं कछन बसाय । तुम साँचे साहेब करुनानिधि पूरन जन-मन-काज । कित पाऊँ कित अंक लगाऊँ सहि न सकत लखि दुखी दीन जन उठि धावत ब्रजराज । कित देखू वह सुंदर रूप । बिह्वल होइ सँवारत निज कर निज भक्तन के काज। हाथ मिले बिन किमि जिय राखों स्वामी ठाकर देव साँच तुम वृन्दाबन-महराज । कहाँ मिलै मेरे गोकुल-भूप । 'हरीचंद' तजि तुमहिं और जो जाँचत ते बिनु-काज।२५ रोअत बीतत रैन दिवस मोहिं तो तेरे मुख पर वारी रे ।। बेबस हवै हो रहौं करि हाय । इन अँखियन को प्रान-पिया छबि तेरी लागत प्यारी रे । | जौ तन तजै मिलै मोहि निहचै तुम बिनु कल न परत पिय प्यारे बिरह बेदना भारी रे । तौ जिअ त्यागौं कोटि उपाय । 'हरीचंद' पिय गरे लगाओ पैयाँ परौं गिरधारी रे ।२६ | हाय कहा करौं करि न सकत कछु - रोवत ही है सखि जीय । तुमरी भक्त-बछलता साँची । 'हरीचंद' बिनु मिले स्याम घन कहत पुकारि कृपानिधि तुम बिनु, सुंदर मोहन प्यारे पीय ।२९ और प्रभुन की प्रभुता काँची । सुनत भक्त-दुख रहि न सकत तुम, जनन सो कबहूँ नाहिं चली। बिनु धाए एकहु छिन बाँची । | सदा सर्बदा हारत आए जानत भाँति भली । द्रवत दयानिधि आरत लखतहि, कहा कियो तुम बलि राजा सों चतुराई न चली । साँच झूठ कछु लेत न जाँची । । बाँधन गए बंधाए आपुहि व्यर्थहि बने छली । , दुखी देखि प्रहलाद भक्त निज, भीषम नै परतिज्ञा टारी चक्र गहायो हाथ । प्रगटे जग जै जै धुनि माँची । अरजुन को रथ हाँकत डोले रन मैं लीने साथ । पहरीचंद' गहि बाँह उपार्यो, जसुदा जू सों हाथ बंधायो नाचे माखन काज । कीरति नटी दसहुँ दिसि नाँची ।२७। मैं रिनियाँ तुम्हरो गोपिन सों कयौ छोड़ि कै लाज । भारतेन्दु समग्र ५४