पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११२०

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मैं आपकी सुविधा के लिए इस गीत की कुछ छपी हुई प्रतियां भेज रहा हूं, ताकि आप इन्हें उन विशेषज्ञों में तुरत बांट सकें, जिनकी सम्मति आप आवश्यक समझे। मुझे यह पढ़कर बड़ी खुशी हुई कि यदि संभव हुआ तो मेरी कविता सम्राज्ञी को भी भेट की जायेगी। यह तो आप जानते ही हैं कि भारतीय जनता के हृदय में सम्राज्ञी के लिए अथाह राजभक्त्ति है । ईश्वर भक्ति को छोड़कर यह भक्ति सब से अधिक है । और केवल अपनी सम्राज्ञी के लिए ही है। इसीलिए मेरे जैसा तुच्छ सेवक क्यों नहीं फूला समाए कि उसे ऐसा अवसर मिला है कि वह सम्राजी के प्रति अपनी राजमक्ति का प्रदर्शन कर सके । -हरिश्चन्द्र कलकत्ता निवासी अपने किसी मित्र को भारतेन्तु बाबू हरिश्चन्द्र ने अपने नये मित्र (बाबू रामदीन सिंह जी) के बारे में लिखा। -सं० "इतने दिनों के अनन्तर मुझे एक हिन्दी के सच्चे प्रेमी मिले है, जो अपने बचन के सच्चे और कार्य में पक्के हैं इन्होंने मेरी पुस्तकों के छापने का प्रण किया है और मेरी अर्थ सहायता भी यथेष्ट कर रहे हैं जिससे मैं अब निश्चिन्त होकर कुछ लिखने में प्रवृत्त हूं । परन्तु खेद है कि उक्त मित्र कुछ काल पूर्व न मिले, नहीं तो मैं बहुत कुछ कर सकता, क्योंकि मेरा शरीर स्वस्थ रहता था । अब मेरा स्वास्थ्य भंग हो गया है। इससे मैं यथायोग्य प्रम नहीं कर सकता । यो तो मेरे मित्र बहुत हैं, परन्तु प्रायः सब सम्पत के साथी ही निकले, अधिकांश स्वार्थी निकले । किसी से कुछ आशा नहीं, हा' इनमें से अधिकांश मित्र वे है जो मेरे ग्रन्थों को छापकर निज उदरपूर्ण करने ही को मित्रता का निदर्शन समझते हैं । परन्तु ईश्वर का धन्यवाद है कि उसने इतने दिनों बाद एक सच्चा प्रेमी मिला दिया जो कि हिन्दी के लिए बड़े व्यग्न हैं और हिन्दी की उन्नति के लिए ठीक मेरी तरह तन-मन-धन श्री कृष्णार्पण करने को कटिबद्ध है । आप इस समाचार से प्रसन्न होंगे कि ये बीच-बीच में मेरी अर्थ सहायता तो करते ही आते है । परन्तु सम्प्रति इन्होंने एक साथ ४०००) देकर मुझे ऋण से उमण किया है। क्या आप ऐसे महात्मा का नाम भी सुनना चाहते हैं ? लीजिए सुनिए - इनका नाम महाराज कुमार श्री रामदीन सिंह, क्षत्रिय पत्रिका सम्पादक, है । मैं अब किसी को पुस्तकें छापने न दूंगा, प्रकाशित अप्रकाशित समस्त पुस्तकों का स्वत्व भी इन्हीं को दिए देता हूं। -हरिश्चन्द्र बंगला में उपन्यास साहित्य की प्रगति देख भारतेन्दु का ध्यान इस ओर भी गया। मारतेन्दु स्वयं भी उपन्यास लिखना चाहते थे। किन्हीं संतोष सिंह को लिखे एक पत्र में वे कहते हैं। "जैसे भाषा में अब कुछ नाटक बन गये हैं अब तक उपन्यास नहीं बने हैं । आप या हमारे पत्र के योग्य सहकारी सम्पादक जैसे बाबू काशीनाथ गोस्वामी राधाचरण जी कोई उपन्यास लिखे तो उत्तम है । यदि ऐसी इच्छा हो तो दीप निर्वाह नामक उपन्यास का अनुवाद हो । यह उपन्यास केवल उपन्यास ही नहीं भारतवर्ष का इससे बड़ा सम्बन्ध -हरिश्चन्द्र इस प्रोत्साहन के बाद कई उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद हुआ। -सं० 1 पं० विष्णुलाल मोहनलाल पंडया जी को यह पत्र उदयपुर पहुंचने के पहिले लिखा गया था। FOREX भारतेन्दु समग्र १०७६