पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११०६

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अतिरिक्त भी कुछ और जन्मे और कुछ थोड़ा बहुत अपना कार्य कर के स्वर्ग को पधार गये । तथापि हमारा मन साक्षी देता है कि साधारणतः केवल कृतकार्य मनुष्यों का ही नाम हमें सुनाई पड़ता है, परन्तु देखते हैं कि सहस्रों के उद्योग करने पर केवल कुछ इने गिने ही अपने कार्य में सफल होते हैं तो अवश्य सम्भव है कि अनेको ने इस कार्य में अपने प्राण खोये होंगे, जिन का नाम भी आज संसार में नहीं है । परन्तु सब से बढ़ कर धन्यवाद के पात्र वही हैं जो इस कार्य में बिना धन और विना यश कमाये. प्रसन्नता पूर्वक अपना कर्तव्य पालन करते हुए काल की गोद में चले गये । इस में कुछ सन्देह नहीं कि वर्तमान राजनियम के अनुसार वह अपनी पुस्तकों पर स्वत्व न रख सके और जहां तहां राजाओं से थोड़ा बहुत पुरस्कार पाते हुए ही वे अपने जीवन के दिन भयंकर दारिद्र दुख में व्यतीत करते रहे परन्तु अब वे ही अपनी चिता की भस्म में से निकल कर मनुष्यों के हृदय पर राज करने लगे हैं । हा शोक ! इस के विचारमात्र से ही हमारे हृदय पर कितना बड़ा आघात लगता है कि जो आज हमारे हृदय के अधीश्वर हैं वे पेट भर अन्न और शरीर टकने योग्य वस्त्र भी बिना पाये अपनी जीवन लीला सम्वरण कर गये । इस से बढ़ कर दुःखदाई और लज्जा जनक बात मनुष्यमात्र के लिये क्या हो सकती . शोक का विषय है कि हमारे स्वर्गीय लेखकगण ही ऐसी दशा में आविर्भूत नहीं हुए कि जिस में हम यह नहीं जान सकते थे कि इन निकम्मों से भी हमारा कुछ काम निकल सकता है, वरन आज तक भी हमारे नागरी जगत में लेखक कोरा उठल्लू समझा जाता है । हम लोग स्वर्ग में गद्दी पाने की इच्छा से निरक्षरभट्टाचार्य कितने साधू, सन्यासी, दण्डी उदासी पुरोहित और गंगा यमुना के पुत्रों की सेवा सुभूषा में कितने ही का गांजा चरस और चण्ड क्यों न फूक दें और जन्म भर उन की टहल किया करें, परन्तु जो स्वर्ग के सच्चे प्रथम दर्शक है उन विद्वान लेखकों की ओर से हम अपना मुंह फेर लें और उन के लिये कभी एक फूटी कौड़ी भी न खर्चे । इसी का फल है कि आजा हमारी यह दुर्दशा हो रही है और हम अपने लेखकों के कष्ट को स्मरण कर २ के आह २ आंसू रो रहे हैं । जब हमें यह दीख पड़ रहा है कि विद्या ही हमारे परित्राण के लिये चक्र है तब तो लेखक भी हमारे लिये चक्रधारी भगवान वसुदेव के समान परित्राणदाता अवश्य होगे । पाठकगण ! समझे, लेखक हमारा पूजनीय और आराधनीय देव है । शत पथ ब्राहमण का वचन है कि "विद्या सो हि देवा:" अर्थात् जो विद्वान है। वही देव हैं । विद्या के बिना लेखनशक्ति प्राप्त नहीं हो सकती और लिखने से विद्या के ऊपर शान चढ़ती है, इस से लेखक विद्वान् की भी अपेक्षा श्रेष्टतर निर्धम पूजनीय देव है । लेखक मनुष्य समाज का प्राण है । लेखक मनुष्य के हृदय पर अपना अधिकार जमाये बिना कदापि नहीं रह सकता है । लेखक से संसार का इतना घनिष्ट सम्बन्ध है कि संसार की गति की परीक्षा हम लेखको की गति से कर सकते हैं । जैसे संसार की अन्य सब बातों में सच और झूठ का भेद माना जाता है वैसे ही लेखकों के भी दो भेद हैं । एक योग्य और दूसरे अयोग्य । योग्य लेखक वे हैं जिन के लेख जगत में माननीय और आदणीय माने जाते हैं और सर्वदा वैसे ही माने जाते रहेंगे । जिन्होंने जिस विषय का विवरण किया वह विषय उस समय जगत में सर्वोच्च समझा जाता था जिन की जिव्हा और लेखरी से सर्वदा ऐश्वरीय विचारों का प्रवाह प्रसृवित होता है । जो इस क्षणभंगुर असार और मायालिप्त वायजगत में रहते हुए भी अनादि अनन्त सारभूत पवित्र आन्तरिकतत्व के साथ सदा विचरण करते हैं । जो इस जगत के आन्तरिक दृश्य को देखते हुए इतर मनुष्यों को जो अधिकांश उस स्वर्गीयसुख से वञ्चित होते हैं और जिव्हा और लेखनी से उस दृष्य के दिखाने की यथासाध्य चेष्टा करते हैं । जिस की पवित्र आत्मा ऐश्वरीयज्ञान के निर्मल प्रकाश में सांसारिक क्षणस्थायी सुखों को तुच्छ देखती हुई अक्षयमोक्ष सुख की खोज में लगी रहती है । "लेखक के स्वभाव पर व्याख्यान देते हुए जर्मनी के प्रसिद्ध तत्व वोता फिची (Fitche) ने कहा था, - "हम और हमारे समस्त मनुष्य भाइयों के सहित इस पृथ्वी पर के समस्तपदार्थ इस दृश्यमान जगत् के सम्भोग पदार्थ हैं, इन पदार्थों के स्वरूप के भीतर उनका सारा भाग जिसे हम लोग "जगत का ऐश्वरीय विचार" कहते हैं, रहता है और यह विचार "जगत की मान्यता है जो प्रति मूर्ति के हृदय में विद्यमान है" जगत में यह ऐश्वरीय विचार सर्वसाधारण के लक्ष में नहीं आ सकते हैं साधारण मनुष्य जगत की बाहरी दिखावटों और बनावटों में ही उलझे रहते हैं और उन का यह स्वप्न में भी विचार नहीं होता कि संसार की इन बाहरी दिखावटों और बनावटों में भी कुछ ऐश्वरीयभाव विद्यमान है । परन्तु लेखक का जगत में अवतार इसी लिये होता है कि वह इस असार जगत के सार को स्वयं देखे और दूसरों को दिखलावे; और भाष का जब जब परिवर्तन हो तो उसी परिवर्तित भाषा में उस समय के मनुष्यों की रुचि के अनुकूल उस "सार" को 04 भारतेन्दु समग्र २०६२