पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०६३

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भाव बताना अंग भाव है । यह औरों की अपेक्षा सहज है । नृत्य वा गीत में इनमें से एक वा दो वा तीन वा चारों साथ ही किए जाते हैं । भाव रसलता जितनी विशेष होगी उतने ही अच्छे होगे क्योंकि अनुभवगम्य हैं। संगीत का छठा भेद कोक अर्थात नायिका. नायक, रस रसाभास,आनंबन, उद्दीपन, अलंकार, समय, समाज इत्यादि का ज्ञान कोक है। यह साहित्य ग्रंथों में सविस्तार वर्णित है इससे यहाँ नहीं लिखते । इसका जानना संगीत वाले को अवश्य क्योकि भाव और नृत्य में इस के बिना काम नहीं चलता। है । मुख की चेष्टा ही से भाव प्रगट करना मुखाकृत भाव है, अर्थात कोई अंग न हिले. भौं-नेत्र इत्यादि यथा स्थान स्थित रहै और भाव चेष्टा से प्रगट हो, यह भी बहुत कठिन है । अंग अर्थात नेत्र हाथ इत्यादि अंगों से सातवाँ भेद हस्त है । नाचने गाने वा बताने में हाय दलाना हस्त है । इसके दो भेद हैं, एक लयाश्रित दूसरा भवानित । प्राय: यह नृत्य और भाव के अंतर्गत ही सा है. इस से कोई विशेषता नहीं । पूर्वोक्त सातों अंग की समष्टि का नाम आदि संगीत-दामोदर संगीत-कल्पतरू, संगीतसार इत्यादि ग्रंथो से चुनकर और अपनी जानकारी के अनुसार भी ये बातें यहाँ लिखी गई है। इसको लिखकर प्रकाश करने में हमारा कुछ प्रयोजन है । शास्त्र दो प्रकार के होते हैं - एक अदृष्टवाद दूसरे दृष्टवाद । अदृष्टवाद परलोक इत्यादि के मत में मनुष्य को तर्क छोड़ कर केवल शास्त्र अवलवन करना चाहिए । दृष्टवाद में शास्त्रों के और बुद्धि के तथा अपने और दूसरों के अनुभव के अविरुद्ध जो बात हो वह माननी चाहिए । संगीत शास्त्र के और अपने मत के अविरुद्ध मनुष्य को वरतना उचित है । अब देखिए कि संगीत की क्या दशा हो रही है । कितनी रागिनियों का गाना कौन कहै किसी ने नाम भी नहीं सुना है । कितनी मत भेद से दो दो चार चार रागों की रागिनी हैं, यह क्या ? केवल अंध परंपरा । हम यह पूछते हैं कि प्रथम गाने में नार मत होने ही का क्या प्रयोजन है ? एक भैरव राग सारा संसार एक स्वर-क्रम और रीति से गावे, यदि कही मतों के भेद से चारों भैरव में भेद है तो उस में एक को भैरव सिद्ध रक्खो बाकी या तो किसी दूसरे राग में आप ही मिले निकलेंगे. यदि न मिले निकलें, उन का दूसरा नाम रक्खो । ऐसे ही हजारो बातें है, कोई बंधा हुआ नियम नहीं । जितने इस विद्या के जानने वाले हैं, अपने अभिमान में मत्त हैं । कोई ऐसा नियम नहीं कि जिसके अनुसार सन्न चलें । यही कारण है कि रागों के पत्थर पिघलने इत्यादि प्रभाव लोप हो गए । हा ! किसी काल में इस शास्त्र का ऐसा कठिन नियम था कि पुराणों में बराबर लिखा है कि ब्रह्मा ने अमुक गंधर्व को ताल से वा स्वर से चूकने से यह शाप दिया, शिवजी ने यह शाप दिया, इंद्र ने यह शाप दिया. वही संगीत शास्त्र अब है कि कोई नियम नहीं । शास्त्र असिल सब डूब गए । कुछ जैनों ने नाश किये, कुछ मुसलमानों ने । मुसलमानों में अकबर और मुहम्मदशाह को इसका ध्यान भी हुआ तो बड़े बड़े गवैये मुसल्मान बनाए गए. जिससे हिंदुओं का जी और भी रहा सहा टूट गया । चलिये सब विद्या मिट्टी में मिली । इसमें मुख्य कारण यही हुआ कि केवल गुरुमुख-अति पर यह विद्या रही । किसी ने कभी इस को ऐसी सुगम रीति पर न लिखा कि उसे देखकर वहीं काम दूसरे कर सकें । धन्य ! राजा यतींद्रमोहन ठाकुर और शौरींद्रमोहन ठाकुर, जिन्होंने इस काल में इस विद्या को बड़ी ही वृद्धि की । श्रीक्षेत्रमोहन गोस्वामी ने इस विषय में नियम भी बनाए हैं और बाधू कृष्णघन बानुर्जी ने एक सितार-शिक्षा भी छपवाई है। उधर के लोगों ने इस विषय में बहुत कुछ किया है पर इधर अभी कुछ नहीं हुआ । हमारे काशी के बाबू महेशचंद्र देव ने सितार, बीन और तानपूरा बनाने में जैसे परिश्रम करके खूटी. तूमा, इत्यादि में नई उपयोगी बात निकाली हैं वैसे ही और सब जानकार लोग मिलकर एक बेर इस लुप्त हुए शास्त्र का भली भाँति मंधन करके इसकी एक सनियम उज्ज्वल परिपाटी बना डालें । नहीं तो यह शास्त्र कुछ दिन में लोप हो जायगा । और हमारे हिंदुस्तानी अमीरों को चाहिए कि वारवधू के मुखचंद्र के सुंदरताही पर इस विद्या की इति श्री न करें, कुछ अभागे भी बढ़े । हमने इसमें जो बातें लिखी हैं उनको सबके खंडन मंडन पूर्वक निर्णय करने के वास्ते यहां प्रकाश करते हैं । जो लोग जानकार हैं वे आनंद से जो इसमें आयोग्य हो उसका खंडन करें, जो बात हमारे समझ में न आई हो उसे समझाबैं और जो योग्य हो उसका अनुमोदन करै । इस विषय में जो कोई पत्र भेजेगा उसे हम बड़े आनंदपूर्वक प्रकाश करेंगे । आशा है कि हमारा परिश्रम व्यर्थ न जायगा और इस विद्या के रसिक लोग हमारी बिनती के अनुसार इसके उद्धार का उपाय शीघ्र ही करेंगे । 67 संगीत सार १०१९