पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/९६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ८९ )

राक्षस को मिलाना ही उत्तम समझा और सहस्रों मनुष्यों के रक्तपात से उन्होने एक जाली पत्र बना लेना या दो चार मानुष्यों का मारा जाना अधिक उचित माना। तृतीय अंक में नाटककार ने चाणक्य ही द्वारा इस विषय पर बहुत कुछ कहलाया है। मलयकेतु अंत में छोड़ दिया गया और शकटदास तथा चन्दनदास की शूली दिखावट मात्र थी। बधिकों का मारा जाना केवल राक्षस से शस्त्र फेंकवाने के लिये झूठ ही कहा गया था।

पूर्वोक्त विचारों से चाणक्य तथा राक्षस पर आरोपित दोषों का मार्जन हो जाता है। राजनीतिज्ञो का कार्य कितना कठिन है, यह नाटककार ने स्वयं ही कहा है ( देखिए अंक ४ पृ० ३६५ )।

इस नाटक का अनुवाद भारतेंदुजी ने राजा शिवप्रसाद के अाग्रह से लिखा था और उन्होने इसको कोर्स में चलाने का विशेष प्रयत्न किया था। यह नाटक राजा लक्ष्मणसिंह की शकुंतला के समान ही कोर्स में उसी समय से अब तक प्रचलित थी और है। यह पहिले पहिल बाला-बोधिनी में प्रकाशित हुई थी। इसकी प्रस्तावना व० २ नं० २ फाल्गुन सं० १९३१ ( फरवरी सन् १८७५ ई० ) में प्रकाशित हुई और फिर यह क्रमशः सन् १८७७ तक छपती रही। कहा जाता है कि मुद्राराक्षस का एक अनुवाद महामना पं० मदनमोहन मालवीय जी के पितृव्य पं० गदाधर भट्ट मालवीय जी कर रहे थे पर जब उन्हें मालूम हुआ कि भारतेंदु जी ने उसका अनुवाद किया है तब उन्होंने उसे प्रकाशित नहीं किया कि अब इसकी आवश्यकता नहीं है।


भा० ना० भू०---७