पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७० )

करती हैं, तब बतलाना पड़ता है। विरह-कष्ट विशेष रूप से प्रकट न होने से जब शंका होती है तब उत्तर मिलता है---

मन मोहन 'तें बिछुरी जब सों,
तन आँसुन सों सदा धोवती हैं।
'हरिचंद जू' प्रेम के फंद परीं,
कुल की कुल लाजहिं खोवती हैं॥
दुख के दिन को कोऊ भाँति बितै,
विरहागम रैन सँजोवती हैं।
हमही अपुनी दशा जानै सखी,
निसि सोवति हैं किधौं रोवती हैं॥

सत्य ही दूसरे का दुख कौन समझ सकता है। कष्ट के दिन तो किसी प्रकार बीत भी जाते हैं पर रात्रि कैसे व्यतीत होती है, यह दुखिया ही समझ सकता है। इस पद का पूर्वानुराग नीली राग ही कहलायेगा, यद्यपि आगे चलकर चंद्रावली जी का यह अनुराग मंजिष्ठा राग में परिवर्तित हो गया है। किस प्रकार यह अनुराग बढ़ा है, इसके कथन के साथ साथ निम्नलिखित पद में विरह की तीन दशाएँ---अभिलाषा, चिंता तथा स्मृति भी लक्षित हो रही हैं।

पहिले मुसुकाइ लजाइ कछु,
क्यौं चितै मुरि मो तन छाम कियो।
पुनि नैन लगाइ बढ़ाइ कै प्रीति,
निबाहन को क्यौं कलाम कियो॥
'हरिचंद' भए निरमोही इते,
निज नेह को यों परिनाम कियो।