पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७३

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उसके पास जाने वाली सखी झुलसने लगती है, गुलाब का कंटर सूख जाता है, सीसी पिघल जाती है, पिसा अरगजा सूखकर अबीर हो जाता है इत्यादि। अग्नि और बढ़ती है, गाँव का गॉव ही गर्मी से तड़फड़ाने लगता है, जाड़े में ग्रीष्म से बढ़कर तपन हो जाती है। अति हो गई! खसखाने में विरहिणी अपनी ही गर्मी से औटी जाती है! धन्य है, अतिशयोक्ति क्या नहीं कर सकती! चुहलबाज इंशा ने ऐसी ही विरहिणी के आह को भाड़ कहा है--

जो दानेहाय अंजुमे गुर्दां को डाले भून।
उस आह सोलाख़ेज़ को 'इंशा' तू भाड़ बॉध॥

विरहाग्नि से गॉव की नदी ऐसी खौल उठी कि समुद्र तक पहुँचकर उसने उसे गरम कर डाला और बड़वाग्नि को जलाने लगी। जायसी ने भी ऐसी ही विरह-विषयक अंट-संट बातें कही हैं। बिरही के लिखे पत्र के अक्षर अंगारे हो रहे थे, जिससे काग़ज़ के न जलते हुए भी उसे कोई छूता न था, तब सुग्गा उसे ले चला। अन्य स्थान पर कहते हैं कि विरह-कथा जिस पक्षी से वह कहता था उसके पक्ष सुनते ही जल जाते थे। मालूम होता है कि वह सुग्गा भी काग़ज़ की तरह किसी विरह-साबर मंत्र से सुरक्षित किया गया था।

इस प्रकार के ऊहात्मक अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन में सत्य का लेश भी न होने से वे सार-हीन हो गए हैं, जिन्हें सुनने से विरही- विरहिणी के असीम दुःखो के अतिशयाधिक्य का अन्दाज़ा शायद कुछ लोगों को लगता हो पर श्रोतागण उससे समवेदना करने के बदले इन बातों की करामात में फँस जाते हैं और उनकी