पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७२

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मार्मिक बातें ऐसी सरलता-पूर्वक कह दी गई हैं कि हृदय पर चोट करती हैं। भाषा अत्यंत मधुर और प्रौढ़ है। निस्पृह दैवी प्रेम का मनोमुग्धकारी उज्ज्वलतम सुन्दर जीता जागता चित्र खड़ा कर दिया गया है। क्यो न हो, यह सच्चे प्रेमी भक्त के निज हृदय का प्रतिबिम्ब है। इस नाटिका का संस्कृत अनुवाद सं० १९३५ की 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका तथा मोहन चन्द्रिका' में क्रमशः छपा है। यह अनुवाद पं० गोपाल शास्त्री ने किया था जो बहुत अच्छा हुआ है। भरतपूर के राव कृष्णदेवशरण सिंह ने इसका ब्रजभाषा में रूपान्तर किया है। भारतेन्दु जी इसका अभिनय कराया चाहते थे पर उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी।

विरह वर्णन

चन्द्रावली नाटिका का मुख्य रस विप्रलम्भ श्रृंगार है। इसलिए उसका कुछ वर्णन यहाँ दिया जाता है। भारतेन्दु जी का विरह-वर्णन पुरानी रूढ़ि के कवियो के वर्णन से कुछ भिन्न है। इनमें अतिशयोक्ति की कमी और स्वाभाविकता का आधिक्य है। यद्यपि पुराने कवियो ने कल्पनाओं की खूब उड़ान मारी है, बड़े बड़े बॉधनू बाँधे हैं, पर सभी में अनैसर्गिकता पद-पद पर साथ लगी चली आई है। हिन्दी तथा उर्दू दोनों ही के कवियों ने विरह के ऐसे २ चित्र खींचे है जिन्हें जयपुर के चित्रकारों की बारीक से बारीक कलम की नज़ाकत भी नहीं दिखला सकती। उर्दू के दो उस्तादों की उस्तादी की बातें सुनिए और अॉखें मूँद कर ध्यान कीजिए, कुछ समझ में आता है---

इन्तहाए लागरी से जब नजर आया न मैं।
हँस के वह कहने लगे बिस्तर को झाड़ा चाहिए॥