पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७१७

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पृ० १२१―धैर्य, सत्य, दान तथा शक्ति सभी अलौकिक हैं। हे राजा हरिश्चंद्र तुमसे सब से बढकर कार्य हुआ है।

पृ० १६९-७०―ब्राह्मण के वाक्य में भगवान हैं। ब्राह्मण मेरे देवता हैं।

पाप किए हुए ब्राह्मण का भी काई तिरस्कार न करे इत्यादि। जिसी किसी उपाय से किसी भी देहधारी को विद्वान संतुष्ट कर दें तो वही भगवान की पूजा है।

जिसकी कहीं गति न हो उसकी गति काशी में होती है।

विधवा का बाल काटना प्राण-कट के समान होता है।

यदि मनुष्यों को संतोषदायक हो तो केश-युक्त ही रहने दे।

पृ० ४३१―महाबली वाराह-शरीरधारी स्वयम् विष्णु, जिनके दंष्ट्रान पर प्रलय में निमग्ना पृथ्वी ठहरी हुई थी, और इस समय वह म्लेच्छों द्वारा उत्पीड़ित होकर जिस राजमूर्ति के दोनो दृढ़ भुजा पर आश्रित है वह वैभवशाली, बड़े भाई के अनुयायी, राजा चंद्रगुप्त बहुत दिनों तक पृथ्वी की रक्षा करें।

पृ० ४७४―(फारसी)–अमीरी हृदय में है, धन में नहीं है।

पृ० ५०१―हे मूढ, क्षण भर के लिए जब तक मैं मधु पीती हूँ, गर्ज ले। मुझसे तेरे मारे जाने पर जल्दी देवगण गजेंगे।

इन्द्र त्रैलोक्य पावें, देवगण यज्ञ की हवि खाने वाले हों और यदि तुम लोग जीना चाहते हो तो पाताल जाओ।