पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७०५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६११
सतीप्रताप

( यही शब्द चारों ओर से प्रतिध्वनित होता है और अाकाश से पुष्प-वृष्टि होती है। तीनों अप्सरा सावित्री को बीच में कर के नाचती और गाती हैं।

गायो सब मिलि प्रेम बधाई।
पतिप्राना नारी के आगे काहू की न बसाई॥
पतिहि जिवायो निज सतीत्व बल कालहु दियोहराई।
इनके यश को सुभग पताका तीन लोक फहराई॥
थाप्यो थिर करि प्रेम पंथ जगनिज आदर्श दिखाई।
देव-वधूगन आनन्दित है प्रेम बधाई गाई॥१॥

( सावित्रो वहाँ से चलती है और एक एक कर के वही दृश्य दिखलाई पड़ते हैं जो सावित्री को यमराज के साथ दिखलाई पड़े थे। अंत में वन का वह दृश्य दिखलाई पडता है जिसमें सत्यवान का मृत शरीर पड़ा है। सावित्री उसमें प्राण सस्थापन करती है और सत्यवान उठता है जैसे कोई सोता हुआ जागे )

सत्यवान---( अंगड़ाई लेकर ) उफ! कैसा भयानक दुःस्वप्न मैंने देखा है। मानो कोई महा विकराल मूर्ति धारण किये महाकाल मेरे प्राण को लेकर चला है। रास्ते में कैसे कैसे घोर वन और भयानक नर्ककुंड मिले हैं, जिसके स्मरण होने ही से रोमांच हो जाता है। फिर मानो वह महाकाल स्वर्ग के द्वार पर मुझे ले गया है, वहाँ मुझे वरण करने के लिये तीन अप्सरा खड़ी हैं, इतने में मानो किसी स्वर्गीय देवी ने मेरा प्राणदान महाकाल से ले लिया है, और वह