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सतीप्रताप
यह जोग-भेष निज कोमल अँग पर लीनो॥
सावित्री--(ईषत् क्रोध से)
कछु धरमहु को भय अपने जिय मैं राखो॥
कुल-कामिनि ह्वै गनिका-धरमहि अभिलाखो।
तजि अमृतफल क्यो विषमय विषयहि चाखो॥
सब समुझि-बूझि क्यो निंदहु मूरख तीनों।
लवंगी--सखी को कैसा जल्दी क्रोध आया है?
सावित्री--अनुचित बात सुनकर किसको क्रोध न आवेगा?
सुर०--सखी! हम लोगों ने जो वचन दिया था वह पूरा किया।
सावित्री--वचन कैसा?
सुर०--सखी, तुम्हारे माता-पिता ने हम लोगों से वचन लिया था कि जहाँ तक हो सकेगा हम लोग तुमको इस मनोरथ से निवृत्त करेंगे।
सावित्री--निवृत्त करोगी? धर्मपथ से? सत्य प्रेम से? और इसी शरीर में?
सुर०--सखी, शांत भाव धारण करो। हम लोग तुम्हारी सखी हैं, कोई अन्य नहीं हैं। जिसमें तुमको सुख मिले वही हम