पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६८

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यहाँ लाते हैं। इसी व्याज से इस दृश्य में सुधाकर द्वारा काशी का माहात्म्य, स्थान आदि सब कहलाए गए हैं तथा काशी की प्रशंसाकर उसके दूसरी ओर का चित्रण भी पूरा कर दिया गया है।

चौथे गर्भांक में काशी में बसे हुए दाक्षिणात्यो का चित्र खींचा गया है। इनकी भाषा हिन्दी तथा मराठी दोनों ही है, कभी हिन्दी बोले कभी मराठी। इन लोगों को भॉग बूटी तथा भोजन की सदा फिक्र रहती है, यही बातचीत में दिखलाया गया है पर साथ साथ शास्त्र की विवेचना भी है और सर्वोपरि 'विप्रवाक्ये जनार्दनः' पंडितो की सभा व्यवस्था देने के लिए होती है पर प्रायः एक विचार के लोग निमंत्रित होते हैं। जो इसमें अनुमति करेंगे वे भी अवश्य सभासद होगे।' 'इतना ही न'। कैसा सरल उत्तर है, सभा मिल जाय तो जो कहा जाय उसी के अनुकूल व्यवस्था देने को कितने तैयार हैं। इसके अनंतर कुछ अपने विषय में कहला कर सबको बहरी तरफ रवाना कर जवनिका गिरा दी जाती है। बस यहीं यह नाटिका समाप्त हो गई और इसके आगे नहीं लिखी गई।

इस नाटिका में कोई ऐसी संबद्ध कथा नहीं है, जिससे सभी दृश्यों में संबंध स्थापित हो सके। यह तो किसी रमते राम का एक तीर्थ-स्थान में जाकर उसकी विशेषता का ऐसे रूप में वर्णन करने का प्रयास है जो अभिनीत होकर रंगमंच पर दिखलाया जा सके। इसका अभिनय हुआ भी है और अभी भारतेन्दु-अर्द्ध शताब्दि पर इसके एक दृश्य का अभिनय हुआ था, जिससे दर्शकों का अत्यंत मनोरंजन हुआ था। प्रेम योगिनी