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सतीप्रताप

तेरे बिछुरे ते प्रान कंत कै हिमंत अंत,
तेरी प्रेम-जोगिनी बसंत बनि आई है॥

प्र० वै०--"बरुनी बघंबर मैं गुदरी पलक दोऊ,
कोए राते बसन भगाहैं भेख रखियाँ।
बूड़ी जल ही मैं दिन जामिनी हूँ जागैं भौंह,
धूम सिर छायो बिरहानल बिलखियाँ॥
ऑसू ज्यौं फटिक-माल काजर की सेली पैन्हि,
भई हैं अकेली तजि चेली संग सखियाँ।
दीजिए दरस 'देव' कीजिए सँजोगिन, ये,
जोगिन ह्वै बैठी हैं बियोगिन की अँखियाँ॥"

द्वि० वै०-एकै ध्यान एकै ज्ञान एकै मन एकै प्रान,
दसों दिसि अबिचल एकै तान तानो है।
जग मैं बसत हूँ मनहुँ जग बाहिर सी,
हियौ तन दोऊ निसि दिवस तपानो है॥
'हरीचंद' जोग की जुगति रिद्धि सिद्धि सब,
तजि तिनका सी एक नेह को निभानो है।
बिना फल आस सीस सहनी सहस्त्र त्रास,
जोगिन सो कठिन बियोगिन को बानो है॥

(सावित्री ध्यान से आँख खोलती है)

सावित्री--अहा! एक पहर दिन आ गया। सखीगण अब तक नहीं आई। इसी से ध्यान भी निर्विघ्न हुआ। हमारी