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भारतेंदु-नाटकावली

ह्वैहैं इतके सब भूत-पिशाच-उपासी।
कोऊ बनि जैहैं आपुहि स्वयं प्रकासी॥
नसि जैहैं सगरे सत्य धर्म अविनासी।
निज हरि सों ह्वैहैं बिमुख भरत-भुवबासी॥
तजि सुपथ सबहि जन करिहैं कुपथ बिलासा।
अब तजहु बीर-बर भारत की सब आसा॥
अपनी वस्तुन कहँ लखिहैं सबहि पराई।
निज चाल छोड़ि गहिहैं औरन की धाई॥
तुरकन हित करिहैं हिंदू संग लराई।
यवनन के चरनहिं रहिहैं सीस चढ़ाई॥
तजि निज-कुल करिहैं नीचन संग निवासा।
अब तजहु बीर-बर भारत की सब आसा॥
रहे हमहुँ कबहुँ स्वाधीन आर्य बलधारी।
यह दैहैं जिय सो सब ही बात बिसारी॥
हरि-बिमुख, धरम बिनु, धन-बलहीन दुखारी।
आलसी मंद तन छीन छुधित संसारी॥
सुख सों सहिहैं सिर यवनपादुका त्रासा।
अब तजहु बीर-बर भारत की सब आसा॥

(जाता है)

सूर्य्य॰––(सिर उठाकर) यह कौन था? इस मरते शरीर पर इसने अमृत और विष दोनों एक साथ