हाव भाव रस रंग रीति बहु काव्य केलि कुसलाई। बिना लोन बिंजन सो सबही प्रेम-रहित दरसाई॥ प्रेमहि सो हरि हू प्रगटत हैं जदपि ब्रह्म जगराई। तासों यह जग प्रेमसार है और न आन उपाई॥