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नीलदेवी

गृहदास्य और कलह ही में नहीं खोतीं, उसी भाँति हमारी गृहदेवता भी वर्त्तमान हीनावस्था को उल्लंघन करके कुछ उन्नति प्राप्त करें, यही लालसा है। इस उन्नति-पथ का अवरोधक हम लोगों की वर्त्तमान कुलपरंपरा-मात्र है, और कुछ नहीं है। आर्य्य-जन-मात्र को विश्वास है कि हमारे यहाँ सर्व्वदा स्त्रीगण इसी अवस्था में थीं। इस विश्वास के भ्रम को दूर करने ही के हेतु यह ग्रंथ विरचित होकर आप लोगों के कोमल कर-कमलों में समर्पित होता है। निवेदन यही है कि आप लोग इन्हीं पुण्यरूप स्त्रियों के चरित्र को पढ़ें-सुनें, और क्रम से यथाशक्ति अपनी वृद्धि करें।

२५ दिसंबर, १८८१
ग्रंथकर्त्ता।