पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५८०

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४७७
भारतदुर्दशा

सरकारहि मंजूर जो मेरो होत उपाय।
तो सब सो बढि मद्य पै देती कर बैठाया॥
हमहीं कों या राज की, परम निसानी जान।
कीर्ति-खंभ सी जग गड़ी, जब लौं थिर ससि भान॥
राजमहल के चिन्ह नहि, मिलिहै जग इत कोय।
तबहू बोतल टूक बहु, मिलिहैं कीरति होय॥


हमारी प्रवृत्ति के हेतु कुछ यत्न करने की आवश्यकता नहीं। मनु पुकारते है 'प्रवृत्तिरेषा भूतानां' और भागवत में कहा है 'लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्ति जंतोः।' उस पर भी वर्तमान समय की सभ्यता की तो मैं मुख्य मूलसूत्र हूँ। पंच विषयेद्रियों के सुखानुभव मेरे कारण द्विगुणित हो जाते हैं। संगीत-साहित्य की तो एकमात्र जननी हूँ। फिर ऐसा कौन है जो मुझसे विमुख हो?

(गाती है)

(राग काफी, धनाश्री का मेल, ताल धमार)

मदवा पीले पागल जोबन बीत्यौ जात।
बिनु मद जगत सार कछु नाहीं मान हमारी बात॥
पी प्याला छक छक आनँद से नितहि सॉझ औ प्रात।
झूमत चल डगमगी चाल से मारि लाज को लात॥
हाथी मच्छड़, सूरज जुगुनू जाके पिये लखात।
ऐसी सिद्धि छोड़ि मन मूरख काहे ठोकर खात॥