पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ४५ )

देखकर घबड़ाई हुई एक साध्वी महारानी का गुरु तथा शास्त्र पर विश्वास रखते हुए उसकी शांति कराना दिखलाना अधिक उपयुक्त समझा। इसके अनंतर पति आकर अपनी धर्मपत्नी के मुख को मलीन देख उसके प्रति अपना प्रेम दिखलाता है और उसे साहस दिलाता है। एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न पर आकर चंडकौशिक के दूसरे अक की सारी कथा दो तीन पंक्ति में कहला दी गई है और उससे साफ़ ध्वनि निकलती है और जैसा कि पॉच छ पंक्ति ऊपर कहलाया गया है कि 'सहज मंगल-साधन करते भी जो आपत्ति आ पड़े तो उसे निरी ईश्वर की इच्छा ही समझ कर संतोष करना चाहिए।' इसके अनंतर स्वप्नमात्र के संत्यविचार'को स्वप्न न रहने देने के लिए विश्वामित्र आप आते हैं और पृथ्वीदान तथा दक्षिणा मॉग लेते हैं। पर हरिश्चंद्र का वह महत्व, जो स्वप्न के दान को सत्य मानने से मिल सकता है, अक्षुण्ण बन रहा। यही सत्यहरिश्चंद्र के द्वितीय अंक की निज कल्पना है।

इसके अनंतर दोनों ही में तृतीय अंक के पहिले एक एक अर्थोपक्षेपक पाया है। चंडकौशिक का प्रवेशक केवल पाप पुरुष का रोना तथा भृंगी द्वारा महादेव जी का पुलकित होना बतलाता है। यदि यह न भी होता तो कथा कहीं से विश्रृंखल न होती। अंकावतार में यह दोनों होते हुए राजा हरिश्चंद्र के अयोध्या से काशी तक पाने का कारण तथा समाचार देकर वह सार्थ कर दिया गया है। और सब बातें एक सी हैं। दोनों के तीसरे अंक की कथा सस्त्रीक बिक कर दक्षिणा चुकाना है, इसलिए कुछ घटा बढ़ाकर सभी बातें एक सी हैं।