पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५२१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४१६
भारतेंदु-नाटकावली

डर होगा'---यह कह उसको वधस्थान में भेज दिया। जिष्णुदास ने कहा कि "हम कान से अपने मित्र का अमंगल सुनने के पहिले मर जायँ तो अच्छी बात है" और अग्नि में प्रवेश करने को वन में चले गए। हमने भी इसी हेतु कि उनका मरण न सुनें यह निश्चय किया कि फॉसी लगाकर मर जायँ और इसी हेतु यहाँ आए है।

राक्षस---( घबड़ाकर ) अभी चंदनदास को मारा तो नहीं?

पुरुष---आर्य! अभी नहीं मारा है, बारंबार अब भी उनसे अमात्य राक्षस का कुटुंब मांगते हैं और वह मित्रवत्सलता से नहीं देते, इसी में इतना विलंब हुआ।

राक्षस---( सहर्ष आप ही आप ) वाह मित्र चंदनदास! वाह! धन्य! धन्य!!

मित्र---परोच्छहुँ मैं कियो सरनागत-प्रतिपाल।
निरमल जस सिबि सो लियो तुम या काल कराल॥

( प्रकाश ) भद्र! तुम शीघ्र जाकर जिष्णुदास को जलने से रोको; हम जाकर अभी चंदनदास को छुड़ाते हैं।

पुरुष---आर्य! आप किस उपाय से चंदनदास को छुड़ाइएगा?

राक्षस---( खड्ग मियान से खींचकर ) इन दुःखो में एकांत मित्र निष्कृप कृपाण से।

समर साध तन पुलकित नित साथी मम कर को।
रन महँ बारहिं बार परिछ्यौ जिन बल पर को॥