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भारतेंदु-नाटकावली

इतहि देव अभ्यास हित सर तजि धनु संघानि।
रचत रहे भुव चित्र सम रथ सुचक्र परिखानि॥
जहँ नृपगन संकित रहे इत उत थमे लखात।
सोई भुव ऊजर भई दूगन लखी नहि जात॥

हाय! यह मंदभाग्य अब कहाँ जाय? ( चारों ओर देखकर ) चलो, इस पुरानी बारी में कुछ देर ठहरकर मित्र चंदनदास का कुछ समाचार लें। ( घूमकर आप ही आप ) अहा! पुरुषो के भाग्य की उन्नति-अवनति की भी क्या-क्या गति होती है कोई नहीं जानता।

जिमि नव ससि कहँ सब लखत निज-निज करहि उठाय।
तिमि पुरजन हम को रहे लखत अनंद बढ़ाय॥
चाहत हे नृपगन सबै जासु कृपा-दूग-कोर।
सो हम इत संकित चलत मानहुँ कोऊ चोर॥

वा जिसके प्रसाद से यह सब था, जब वही नहीं है तो यह होहीगा। ( देखकर ) यह पुराना उद्यान कैसा भयानक हो रहा है।

नसे बिपुल नृप-कुल-सरिस बड़े बड़े गृह-जाल।
मित्र-नास सो साधुजन-हिय सम सूखे ताल॥
तरुवर भे फलहीन जिमि बिधि बिगरे सब नीति।
तृन सों लोपी भूमि जिमि मति लहि मूढ़ कुरीति॥