मलय०---( देखकर और अक्षर और मुहर की मिलान करके ) आर्य! अक्षर तो मिलते हैं।
राक्षस---( आप ही आप ) अक्षर निःसंदेह मिलते हैं, किंतु शकटदास हमारा मित्र है, इस हिसाब से नहीं मिलते। तो क्या शकटदास ही ने लिखा, अथवा--
पुत्र-दार की याद करि स्वामि-भक्ति तजि देत।
छोड़ि अचल जस कों करत चल धन सों जन हेत॥
या इसमें संदेह ही क्या है?
मुद्रा ताके हाथ में, सिद्धार्थक हू मित्र।
ताही के कर को लिख्यौ, पत्रहु साधन चित्र॥
मिलि के शत्रुन सों करन भेद भूलि निज धर्म।
स्वामि-विमुख शकटहि कियो, निश्चय यह खल कर्म॥
मलय०---आर्य! श्रीमान् ने तीन आभरण भेजे सो मिले, यह जो आपने लिखा है सेा उसी में का एक आभरण यह भी है? ( राक्षस के पहने हुए आभरण को देखकर आप ही आप ) क्या यह पिता के पहने हुए आभरण हैं? ( प्रकाश ) आर्य, यह आभरण आपने कहाँ से पाया?
राक्षस---जौहरी से मोल लिया था।
मलय०---विजये! तुम इन आभरणों को पहचानती हौ?
प्रति०---( देख कर आँसू भर के ) कुमार! हम सुगृहीत-