पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४९२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८६
भारतेंदु-नाटकावली

क्षप०---नहीं उपासक! गुप्त ऐसा नहीं है, पर वह बहुत बुरी बात है।

भागु०---तो जाओ, हम तुमको परवाना न देंगे।

क्षप०---( आप ही आप की भाँति ) जो यह इतना अाग्रह करता है तो कह दें। ( प्रगट ) श्रावक! निरुपाय होकर कहना पड़ा। सुनो। मैं पहिले कुसुमपुर में रहता था, तब संयोग से मुझसे राक्षस से मित्रता हो गई, फिर उस दुष्ट राक्षस ने चुपचाप मेरे द्वारा विषकन्या का प्रयोग कराके बिचारे पर्वतेश्वर को मार डाला।

मलय०---( अॉखों में पानी भर के ) हाय-हाय! राक्षस ने हमारे पिता को मारा, चाणक्य ने नहीं मारा। हा!

भागु०---हॉ, तो फिर क्या हुआ?

क्षप०---फिर मुझे राक्षस का मित्र जानकर उस दुष्ट चाणक्य ने मुझको नगर से निकाल दिया; तब मैं राक्षस के यहाँ आया, पर राक्षस ऐसा जालिया है कि अब मुझको ऐसा काम करने को कहता है जिससे मेरा प्राण जाय।

भागु०---भदंत! हम तो यह समझते हैं कि पहिले जो आधा राज देने को कहा था, वह न देने को चाणक्य ही ने यह दुष्ट कर्म किया, राक्षस ने नहीं किया।

तप०---( कान पर हाथ रखकर ) कभी नहीं, चाणक्य तो विष-