पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४७७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३७०
भारतेंदु-नाटकावली

भागु०---कुमार! मंत्री के जी की बातें बड़ी गुप्त हैं। कौन जाने?

इससे देखिए अभी सुन लेते हैं कि क्या कहते हैं।

राक्षस---अजी, भली भॉति कहो।

कर०---सुनिए---जिस समय आपने आज्ञा दिया कि करभक, तुम जाकर वैतालिक स्तनकलस से कह दो कि जब-जब चाणक्य चंद्रगुप्त की आज्ञा भंग करे तब-तब तुम ऐसे श्लोक पढ़ो जिससे उसका जी और भी फिर जाय।

राक्षस---हाँ, तब?

कर०---तब मैंने पटने में जाकर स्तनकलस से आपका संदेसा कह दिया।

राक्षस---तब?

कर०---इसके पीछे नंदकुल के विनाश से दुःखी लोगों का जी बहलाने के हेतु चंद्रगुप्त ने कुसुमपुर में कौमुदीमहोत्सव होने की डौंड़ी पिटा दी और उसको बहुत दिन से बिछुड़े हुए मित्रों के मिलाप की भॉति पुर के निवासियों ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक स्नेह से मान लिया।

राक्षस---( आँसू भरकर ) हा देव नंद!

जदपि उदित कुमुदन सहित पाइ चांदनी चंद।
तदपि न तुम बिन लसत हे नृपससि! जगदानंद॥

हाँ, फिर क्या हुआ?